क़ुरबानी

ईद की क़ुरबानी के बारे में उलेमा में इख्तिलाफ है कुछ इसे वाजिब कहते हैं और कुछ इसे सुन्नत कहते हैं.
लेकिन यह बात दर्जनों हदीसों से साबित है कि बिना हज के, मदीन मुनव्वरा में अल्लाह के रसूल (स.अ.व्.) पाबन्दी से क़ुरबानी किया करते थे और सहाबा भी करते थे.
मिसाल के लिए देखये मुसनद अहमद 4935, सुन्न तिर्मज़ी 1501 अब्दुल्लाह बिन उमर बयान करते हैं कि नबी (स.अ.व्.) दस साल मदीने में रहे और हर साल क़ुरबानी किया करते थे.
सही बुखारी 5545 - अल्लाह के रसूल (स.अ.व्.) ने फ़रमाया जिसने भी ईद की नमाज़ के बाद जानवर ज़िबह किया उसकी क़ुरबानी हो गई और उसने मुसलमानों की सुन्नत पर अमल कर लिया.
सही बुखारी 5553 हज़रत अनस (र.अ.) फरमाते हैं कि अल्लाह के रसूल (स.अ.व्.) दो मैंढो की क़ुरबानी किया करते थे और मैं भी दो मैंढो की ही क़ुरबानी किया करता था.
यानी हज करने से अलावा जो लोग अपने मुल्क और अपने शहरो में हैं और साहिबे हैसियत है वो लोग भी क़ुरबानी करने चाहिए उनके लिए रसूल अल्लाह स.अ.व. के अमल से ये बात साबित होती है. इसमें किसी तरह का इख्तेलाफ़ नहीं .

वैसे तो इसलाम में कुर्बानी का ज़िक्र आदम (अ.स.) के ज़माने से मिलता है, लेकिन इसलाम में बुनयादी तौर पर कुर्बानी हज़रत इब्राहीम (अ.स.) के ज़माने से है जब उन्होंने अपने बेटे को कुर्बान करने की कोशिश की तो अल्लाह ने उनके बेटे के बदले एक जानवर की कुर्बानी ली तब से यह अपनी जान की कुर्बानी के निशान के तौर पर हर साल दी जाती है.

क़ुरबानी में कई हिकमते हैं लेकिन इस का सबसे अहम् फलसफा यह है कि अल्लाह बन्दे के लिए सबसे बढ़ कर है.

ईद के ख़ास मौक़ा को अल्लाह ने ख़ास जानवर ज़बह के लिए मुक़र्रर किया है और इसमें भी अल्लाह की बेशुमार हिकमतें हैं। ये कहना कि क़ुर्बानी की तमाम रक़म ग़रीब को दे दी जाये, ये इस बात से लाइलमी (अज्ञानता) की अलामत है कि गरीबी का ईलाज महिज़ पैसे दे देना नहीं होता, बल्कि ग़रीब तबक़े के लिए अर्थव्यवस्था का पहिया चलाना भी इस का बेहतरीन ज़रीया है। जदीद इलम मईशत (आधुनिक अर्थशास्त्र) से वाक़िफ़ हज़रात एक बुनियादी उसूल Multiplier से अच्छी तरह वाक़िफ़ होंगे कि ट्रेड साईकल की वजह से क़ौमी आमदनी मैं किस क़दर इज़ाफ़ा होता है। साल में एक मर्तबा क़ुर्बानी से जो फायदे हासिल होते हैं वो किसी इन्फ़िरादी शख़्स (व्यक्ति विशेष) की मदद से हासिल नहीं हो सकते। इस त्योहार से मआशी (आर्थिक) पैदावार का अमल बढ़ाने का मौक़ा मिलता है, फार्मिंग और कैटल इंडस्ट्री (farming and cattle industry) की बढ़ोतरी होती है और किसान, से लेकर क़साई, जानवर लाने वाले ड्राईवर और चटाई बनाने वाले तक लाखों लोग महिज़ एक त्योहार की आमद से मआशी (आर्थिक) तौर पर ख़ुशहाल होते हैं। Leather इंडस्ट्री में इस त्योहार के बाद ग़ैरमामूली हरकत पैदा होती है। और फिर इन जानवरों के गोश्त में भी ग़रीबों का अहम हिस्सा होता है।इस तरह महिज़ एक त्योहार की बदौलत पैसा दौलत मंदों की तिजोरियों से निकल कर ग़रीबों की जेब की तरफ़ सफ़र करता है। चुनांचे ज़रा ग़ौर करें तो ये तहवार दरअसल रहमत ही रहमत है। हमारे एक अज़ीज़ का जुमला नक़ल करते हुए इस लेख को ख़त्म करना चाहूँगा।
क़ुर्बानी का बकरा स्मार्टफोन से सस्ता ही होता है लेकिन आपने किसी को ये कहते नहीं सुना होगा कि स्मार्टफोन की बजाय ग़रीब की मदद करो !!!

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