मुस्लिम कैलेंडर

मुस्लिम कैलेंडर में महीने किसी विशेष मौसम के साथ सम्बद्ध नहीं होते हैं। क्योंकि मौसमों का आगमन सूर्य की स्थिति पर निर्भर है जबकि मुस्लिम कैलेंडर में महीने की गणना चन्द्रमा पर आधारित है। संसार भर में प्राचीनतम सभ्यताओं से लेकर आज तक काल गणना हेतु एक वर्ष में बारह महीने ही माने गये हैं। आदिकाल से मनुष्य काल गणना के लिये चंद्र कलाओं पर आधारित प्राकृतिक तरीक़े का उपयोग करता आ रहा है। चंद्र-दर्शन के आधार पर बारह महीने 355 दिनों के होते हैं जबकि सूर्य के गिर्द धरती का एक चक्कर 365 दिनों में पूरा होता है। इस प्रकार हर साल 10  दिनों का अंतर होते जाने के कारण चंद्र दर्शन पर आधारित कोई भी त्योहार मौसम के साथ बंधा नहीं रह सकता, बशर्तें कि महीनों की संख्या के साथ छेड़छाड़ ना की जाए।

मानव इतिहास में जब कृषि आधारित व्यवस्था का जन्म हुआ तो कृषि आधारित समाजों नें अपने धार्मिक पर्वों को भी फसलों के साथ जोड़ कर देखना शुरू कर दिया। ऐसे में जब उनके पर्व हर साल किसी विशेष मौसम से हटकर पड़ते थे तो पर्व में फ़सल तैयार ना होने से उन्हें कुछ असुविधा महसूस होने लगी। अब अमुक पर्व और अमुक त्योहार किसी विशेष मौसम में ही पड़े इसके लिए उपाय खोजे जाने लगे। अंततः उनके पुरोहितों ने एक नायाब तरीका खोज निकाला। उन्होंने ने हर साल 10 दिनों के अन्तर को हर तीसरे साल (30 दिन के अंतर को) एक अतिरिक्त महीना  जोड़कर पाट दिया। अर्थात हर  तीसरे साल में उस साल बारह की बजाय तेरह महीने घोषित कर दिए जाते थे। अब चूंकि आदि सनातन परंपरा कहती थी कि साल में बारह महीने ही होते हैं, तो इस तेरहवें महीने को एक तरह से अवैध घोषित करके इसे मलमास, खरमास, अधिमास कहकर इसमें सभी शुभकर्म वर्जित ठहरा दिये गये। इस प्रकार हर तीसरे साल बारी-बारी  (कभी दो चैत्र, कभी दो वैशाख, कभी दो ज्येष्ठ, इत्यादि) में से एक महीने को मलमास घोषित करके चंद्र आधारित तिथियों को फसलों की सुविधानुसार मौसम विशेष में पड़ना सुनिश्चित कर लिया गया।

मुसलमान काल गणना के उसी प्राकृतिक तरीके पर अमल करते चले आ रहे हैं जो आदिकाल से प्रचलित रहा है। वह इसमें किसी भी तरह के संशोधन को इसलिए सही नहीं समझते क्योंकि क़ुरआन में अल्लाहपाक  नें फ़रमा दिया है कि महीनों की तादाद तो अल्लाह के नज़दीक़ बारह ही है।

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