नई शिक्षा नीति (संग्रहित)

नई शिक्षा नीति 2020 पर आलोचनात्मक दृष्टि:

34 सालों बाद नई शिक्षा नीति 2020 आयी है! 2015 में बनी सुब्रह्मण्यन कमिटी और फिर 2017 में बनी कस्तूरीरंगन समिति की सिफ़ारिशों को शामिल करते हुए इस ड्राफ्ट को तैयार किया गया जिसे कैबिनेट पिछले हफ़्ते मंजूरी दी! इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत की शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की ज़रुरत थी लेकिन क्या ये नई शिक्षा नीति किन आशावादी बदलावों की बात करती है? करती है तो कितने ठोस आधारों पर? क्योंकि नीतियाँ तो पहले भी आती रही हैं लेकिन असली समस्या ज़मीन पर क्रियान्वयन की रही है! क्या अच्छी बातें हैं इस नीति में और कौन सी बातें कहने-सुनने में अच्छी तो लग रही हैं लेकिन वो असल में अच्छी हैं नहीं?

पूरे ड्राफ्ट को दो भागों में बांटा जा सकता है-  स्कूली शिक्षा और उच्चतर शिक्षा! शुरुआत करते हैं इस नीति में उल्लिखित कुछ अच्छी बातों से! जैसे स्कूली स्तर पर: 3 से 6 साल के बच्चों के लिए Early childhood education का प्रावधान, मिड-डे मील के साथ अब ब्रेकफास्ट भी, स्कूल स्तर पर सिलेबस का बोझ कम किया गया, वार्षिक परीक्षा का अंत करते हुए सिर्फ़ तीसरी और 5वीं और 8वीं में परीक्षा का प्रावधान, संपूर्ण मूल्यांकन, जेंडर इन्क्लूजन फण्ड, स्पेशल एजुकेशन जोन, स्कूल कॉम्प्लेक्स/क्लस्टर, ड्रॉपआउट बच्चों की संख्या कम करने और ग्रॉस एनरोलमेंट रेश्यो बढ़ाने का प्रावधान, , शिक्षकों की नियुक्ति और प्रशिक्षण का विशेष का प्रावधान, 4 साल के इंटिग्रेटेड बीएड का प्रावधान, पाठ्यक्रम कम करके विविधतापूर्ण शिक्षा को बढ़ावा, बहुभाषिकता को बढ़ावा, मातृभाषा  अथवा होम लैंग्वेज में प्राथमिक शिक्षा, शिक्षकों की नियुक्ति का एक पारदर्शी नेशनल स्टैण्डर्ड इत्यादि! इसी तरह उच्च शिक्षा में बहुविषयक अप्रोच,  बेहतर मूल्यांकन पद्धति, कोचिंग संस्थानों पर लगाम, प्रौद्योगिकी एवं ऑनलाइन शिक्षा का व्यापक उपयोग इत्यादि!  लेकिन इन सबको भी read between the lines करने की ज़रुरत है!

ड्राफ्ट की आलोचना कई मुद्दों पर की जा सकती है! इस ड्राफ्ट में ये तो लिखा है कि प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था ने चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, भास्कराचार्य, ब्रह्मगुप्त, चाणक्य, चक्रपाणि दत्ता, माधव, पाणिनि, पतंजलि, नागार्जुन, गौतम, पिंगला, शंकरदेव, मैत्रेयी, गार्गी, तिरुवल्लुवर जैसे अनेकों महान विद्वानों को जन्म दिया! लेकिन ये कहीं भी बुद्ध, महावीर, चार्वाक और लोकायत के तर्क पद्धति (जो सच में क्रिटिकल थिंकिंग पर आधारित हैं), का ज़िक्र नहीं है!

ड्राफ्ट में संस्कृत को त्रिभाषा के मुख्यधारा विकल्प के साथ स्कूल और उच्चतर शिक्षा के सभी स्तरों पर छात्रों के लिए एक महत्वपूर्ण, समृद्ध विकल्प के रूप में पेश किया जायेगा ऐसा लिखा है लेकिन संस्कृत के अलावा भारत की अन्य शास्त्रीय भाषाओं और साहित्य  को बस ऑनलाइन मोड्यूल के रूप में उपलब्ध होने की बात लिखी गयी है! स्पष्ट है कि जिस भाषा में हिन्दू, सनातन, ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता स्थापित होती है उसे ही मुख्य विकल्प बनायेंगे ये ताकि आगे चलकर इनके अखण्ड हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को मजबूत करे!

इस शिक्षा नीति की सबसे बड़ी आलोचना ये है कि इसमें आरक्षण का नाम तक नहीं लिया गया है कहीं! अब बिना आरक्षण के किस तरह सामाजिक न्याय सुनिश्चित किया जा सकता है ये समझ से परे हैं? भारत में जातिवाद उससे उपजे शोषण और वंचना को भला कौन नहीं जानता! ज़ाहिर है जान बूझकर आरक्षण शब्द इसमें शामिल नहीं किया गया है और इस सरकार की मंशा भी पिछले 6 सालों में कई बार आरक्षण को लेकर क्या रही है ये किसी से छिपी बात नहीं है! कोई भी शिक्षा समावेशी कैसे हो सकती है अगर समाज के सभी तबकों की शिक्षा में भागीदारी सुनिश्चित नहीं होती? 

भारत में प्राइमरी से लेकर यूनिवर्सिटी तक में सबसे बड़ी कमी शिक्षकों की संख्या की है! जहाँ आधे से अधिक स्कूलों में तय मानक से कम शिक्षक हैं वहीं यूनिवर्सिटी के स्तर पर शिक्षकों के 40 से 50% पद रिक्त हैं! बिना समुचित शिक्षक-छात्र अनुपात के  शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित नहीं की जा सकती! शिक्षकों की नियुक्ति तो इस सरकार के अब तक के 6 साल से ऊपर के कार्यकाल में किसी भी एजेंडे में नहीं दिखी, उल्टे शिक्षकों के पद ख़त्म ज़रूर किये हैं इस सरकार ने! बिना तय समय सीमा के और इस नीति को बाध्यकारी बनाये ये सरकार कैसे सुनिश्चित करेगी कि देश में शिक्षकों के ख़ाली पड़े क़रीब 20 लाख से अधिक पद भर दिए जायेंगे?

कहने तो इस ड्राफ्ट में शिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिशत ख़र्च किया जायेगा लेकिन चूँकि शिक्षानीति कोई बाध्यकारी क़ानून तो है नहीं, तो ख़र्च कौन करेगा? राज्य या केंद्र? और ये ख़र्च कहाँ से आयेंगे ये भी नहीं बताया गया है! सरकार कितना अनुदान देगी और कितना शिक्षण संस्थानों को ख़ुद जुगाड़ करना पड़ेगा संचालन के लिए? कुछ भी स्पष्ट नहीं है! कहने को तो 1968 के कोठारी कमीशन रिपोर्ट में शिक्षा पर जीडीपी का 10% ख़र्च करने का लक्ष्य रखा था! 1986 की शिक्षा नीति में भी जीडीपी का 6% रखा गया था! लेकिन अब तक हम 4.43% से आगे नहीं बढ़ पाये हैं और पिछले कुछ सालों में तो शिक्षा बजट में उल्टे कटौती ही की गयी है!

अगले 15 सालों में अर्थात वर्ष 2035 तक कॉलेजों को विश्वविद्यालयों से संबद्धता ख़त्म करके स्वायत्त बना देने का लक्ष्य रखा गया है! ये स्वायत्ता अकादमिक, वित्तीय और प्रशासनिक तीनो स्तर पर होगी! अर्थात सरकार से इनको अनुदान नहीं मिलेगा, इन्हें अपना ख़र्च ख़ुद उठाना होगा! ज़ाहिर है कि स्टूडेंट्स की फ़ीस बढ़ाकर ही वित्तीय स्वायत्ता का लक्ष्य पूरा किया जायेगा! मने कॉलेज मनमाने सब्जेक्ट, मनमानी फ़ीस, मनमाने रूल बना सकेंगे! मंहगी फ़ीस लाखों बच्चों के ड्रॉपआउट का कारण बनेगी! ये भी कहा गया है कि 3 हज़ार से कम छात्र संख्या वाले कॉलेज बंद कर दिए जायेंगे अथवा दूसरे में विलय कर दिए जायेंगे! देश में हज़ारों कॉलेज ऐसे हैं जिनमें 3 हज़ार से कम छात्र पढ़ते हैं तो क्या उन सबको बंद कर दिया जायेगा? पहाड़ी और आदिवासी बहुल इलाक़ों में बहुत सारे कॉलेज 3 हज़ार से कम स्टूडेंट्स की संख्या वाले होते हैं! इनको बंद करके किसी बड़े कॉलेज में विलय करने से भौगोलिक दूरी बढ़ जाएगी जिससे बहुत सारे स्टूडेंट्स ड्रॉपआउट हो जायेंगे, ख़ासकर लड़कियाँ!

ये भी कहा गया है कि देशभर में 50 हज़ार से अधिक कॉलेज विलय, क्लोजर और टेक ओवर की नीति के जरिये 15000 की संख्या तक सीमित किये जायेंगे। ज़ाहिर है कि कॉलेज भौगोलिक रूप से बिखरे हुए होने के कारण ही देश के दूर-दराज के इलाकों के बच्चों को शिक्षा सुनिश्चित करते हैं! अगर इनकी संख्या ही कम हो जाएगी तो छात्रों को अधिक दूरी तय करके शिक्षा लेने जाना पड़ेगा इससे भी ड्रॉपआउट बढ़ने की आशंका है, ख़ासकर लड़कियों की! वस्तु स्थिति ये है कि अगर 12वीं के बाद सभी बच्चे आगे की पढ़ाई जारी रखना चाहें तो भी उनके लिए पर्याप्त संस्थान नहीं हैं ऐसे में कॉलेज और यूनिवर्सिटी की संख्या बढ़ाने के बजाय कम करना किस तर्क पर आधारित है भला?

ग्रेजुएशन के स्तर पर मल्टीपल एंट्री और एग्जिट के सिस्टम से भी ड्रॉपआउट बढ़ने की आशंका अधिक है! जब पूरी डिग्री से किसी को नौकरी नहीं सुनिश्चित हो रही है तो एक साल के सर्टिफिकेट या दो साल के डिप्लोमा अथवा 3 साल के अधूरी डिग्री से क्या ही सुनिश्चित होगा? ऊपर से स्वायत्तता के कारण फ़ीस बढ़नी तय है तो ऐसे में ड्रॉपआउट कैसे कम होंगे?

उच्च शिक्षा में 3 स्तरों में बांटने की बात कही गयी है:  डिग्री कॉलेज, टीचिंग यूनिवर्सिटी और सबसे ऊपर रिसर्च यूनिवर्सिटी! कोई मुझे बताएगा कि रिसर्च यूनिवर्सिटी और टीचिंग यूनिवर्सिटी में फ़र्क कौन तय करेगा? कोई टीचिंग यूनिवर्सिटी का स्टूडेंट या टीचर रिसर्च करना चाहे तो क्या वो यूनिवर्सिटी छोड़ दे? टीचिंग और रिसर्च में इतना स्पष्ट बंटवारा कहाँ होता है? इन दोनों में गहरा लिंक होता है!

प्रत्येक संस्थान में BOG (बोर्ड ऑफ गवर्नरस्) के माध्यम से सब कुछ संचालित किया जायेगा जो सारे मामले देखेगा- वित्त के जुगाड़ से लेकर, शिक्षकों की नियुक्ति, उनकी सैलरी, प्रमोशन, बर्ख़ास्तगी सब कुछ! मतलब अब शिक्षक किसी अच्छी माँग को भी उठाने से डरेंगे! किसी भी प्रोटेस्ट, धरने इत्यादि में जाने से डरेंगे, भले ही वो कितना ही जनहित से जुड़ा मामला हो! शिक्षक एक स्वतंत्र चिंतन लिए हुए कोई क्रिटिकल थिंकिंग वाला व्यक्ति न होकर एक बेजुबान मजदूर बना दिया जायेगा जिसे अपनी नौकरी, सैलरी, प्रमोशन के लिए BOG के सामने हमेशा नतमस्तक रहना होगा!

4 साल के ग्रेजुएशन का हश्र हम दिल्ली यूनिवर्सिटी में देख चुके हैं! ये एक असफ़ल मॉडल है भारत में! ये बात सही है मल्टीडिसिप्लिनरी अप्रोच होना चाहिए लेकिन ऐसा भी न हो कि स्टूडेंट्स दस विषयों पर अधूरा ज्ञान रखें लेकिन किसी भी एक विषय पर विशेषज्ञता न हासिल कर सकें (Knowing a little about a lot and knowing a lot about a little). आज के प्रतिस्पर्द्धा वाले ज़माने में औसत जानकारी की कोई पूछ नहीं होती सिर्फ़ स्पेशलिस्ट को बाज़ार खोजता है! तो सर्टिफिकेट, डिप्लोमा, तीन साल की अधूरी डिग्री अथवा 6वीं कक्षा से ही दी गयी वोकेशनल ट्रेनिंग देश में सिर्फ़ कुशल श्रमिक तैयार करने की क़वायद है और अधिक ड्रॉपआउट की भी! इस ड्राफ्ट में सभी यूनिवर्सिटीज़ को मल्टी-डिसिप्लिनरी बनाने की अनिवार्यता रखी गयी है! मल्टी-डिसिप्लिनैरिटी अच्छी बात है लेकिन सभी को ऐसा अनिवार्य बनाना कुछ ज़्यादा ही हो गया! बहुत ही स्पेशलाइज्ड स्टडी बहुविषयक नहीं बनाये जाने चाहिये! वर्षों लग जाते हैं किसी संस्थान को गुणवत्तापूर्ण विशिष्ट ज्ञान केंद्र बनाने में, अनिवार्य बहुविषयक पढ़ाई इसमें मुश्किल खड़ी कर देगा!

रिसर्च कोई मजाक नहीं है जो 4 साल के ग्रेजुएशन के बाद सीधे किया जा सके! तवे पर भूनकर बच्चे को जवान नहीं बनाया जा सकता है! नयी नीति में एमफिल को बंद किया जा रहा है!  देश में एमफिल की व्यवस्था इसलिए भी की गयी थी ताकि स्टूडेंट्स पहले रिसर्च मेथड्स की समझ विकसित करें और फिर पीएचडी के लिए जायें! अधिकांश यूनिवर्सिटी में MA के स्तर पर कोई रिसर्च मेथड्स नहीं पढ़ाये जाते अथवा यूँ कहें कि अपर्याप्त होते हैं! ऐसे में MA के तुरंत बाद अथवा 4 साल के ग्रेजुएशन डिग्री के बाद रिसर्च में क्या गुणवत्ता होगी इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है! ख़ासकर देश के पिछड़े क्षेत्रों से आने वाले दलित-वंचित-आदिवासी-पसमांदा और लड़कियाँ जो बमुश्किल उच्च शिक्षा तक आ पाते हैं, उन्हें 4 साल के ग्रेजुएशन के बाद तुरंत पीएचडी करने के लिए कहा जाए तो उनके लिए मुश्किल हो जाएगी क्योंकि उनकी शैक्षणिक पृष्ठभूमि देश के सुविधा-संपन्न बच्चों की तुलना में प्रायः कमतर होती है!

देश में लोकतंत्र है! इतनी बड़ी शिक्षा नीति पर संसद में बहस तक नहीं करवायी गयी! क्यों? शिक्षा जो कभी राज्य सूची का विषय हुआ करती थी, बाद में समवर्ती सूची में आयी और अब इस नीति के बाद वो पूरी तरह केंद्र सरकार द्वारा तय की जाती नज़र आ रही है, ये कहाँ तक लोकतांत्रिक और विविधतापूर्ण साबित होगा? राज्य अपनी आवश्यकताओं के हिसाब से शिक्षण संस्थान कैसे खोलेंगे? नीति तो केंद्रीकृत बना दी गयी लेकिन वित्त, अनुदान, आधारभूत संरचना के लिए इसे बाज़ार पर छोड़ दिया गया है! भारत जैसे ग़रीब देश में शिक्षा का बाज़ारीकरण कैसे समावेशी हो सकता है? शिक्षा को अमेरिकी मॉडल बनाने पर ज़ोर दिया जा रहा है लेकिन हमें ये मालूम होना चाहिए कि अमेरिका में ग्रेजुएशन करना मतलब क़र्ज़ में डूबने जैसा है! तब जबकि वहाँ प्रति व्यक्ति आय भारत से बहुत बेहतर है! दूसरे अमेरिका में ब्रेनपूल वहाँ की मंहगी शिक्षा व्यवस्था या प्राइवेटाइजेशन के कारण नहीं बल्कि पूरे विश्व से ब्रेन-ड्रेन और बेहतर रिसर्च माहौल के कारण है! हम नक़ल कर रहे हैं लेकिन हमारी परिस्थितियाँ अमेरिका से बिल्कुल अलग हैं! 

किसी भी देश में शिक्षा में गुणवत्ता के लिए पर्याप्त संख्या में शिक्षक, बेहतर प्रशिक्षण, शिक्षण संस्थानों में अच्छी आधारभूत संरचना की ज़रुरत होती है! बच्चों में क्रिटिकल थिंकिंग के विकास के लिए शिक्षकों को अभिव्यक्ति की आज़ादी, एक अच्छे विजन वाली नीति की ज़रुरत होती है! ये नई शिक्षा नीति उपर्युक्त में से किसी भी शर्त को पूरा करने के बारे में या तो चुप है अथवा अस्पष्ट और विरोधाभासी है! कहने को नीति के ड्राफ्ट में क्रिटिकल थिंकिंग इतनी बार उल्लिखित है मानो पूरा ज़ोर इसी पर हो लेकिन असल में ये क्रिटिकल थिंकिंग को ख़त्म करने का एक ड्राफ्ट साबित हो सकता है! कोई मुझे बताये कि जब शिक्षक की नौकरी, उनकी सैलरी, उनकी नियुक्ति, प्रमोशन, बर्ख़ास्तगी, संविदा-नियुक्ति सब कुछ BOG के हाथों में होगी यानि जो ख़ुद बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स की दया पर होगा, जिसे अभिव्यक्ति की आज़ादी न मिलेगी वो शिक्षक क्या क्रिटिकल थिकिंग विकसित करवा सकेगा अपने छात्रों में?

पूरे ड्राफ्ट में कहीं भी जातिवाद, पितृसत्ता जैसे संरचनात्मक सामाजिक अवरोधों को ख़त्म करने की बाद नहीं की गयी है! दर्ज़न भर जगह क्रिटिकल थिंकिंग शब्द ठूंसा गया है, प्राचीन शास्त्रार्थ और तर्क परंपरा की बात हुई है लेकिन कहीं भी बुद्ध, महावीर, चार्वाक, लोकायत परंपरा वाली क्रिटिकल थिंकिंग का ज़िक्र नहीं है! वो ड्राफ्ट कितना प्रगतिशील होगा?

ऑनलाइन एजुकेशन को एक बेहतर विकल्प के रूप में पेश करने की वक़ालत की गयी है लेकिन भारत जैसे देश में डिजिटल डिवाइड को देखते हुए ये एक्सक्लूशनरी ही साबित होगा! ऑनलाइन एजुकेशन का एक पूरा चैप्टर एकदम अंतिम समय में जोड़ा गया जिसपर कोई बहस नहीं हुई! एक स्टूडेंट में लोकतांत्रिक मूल्य, भाईचारा, प्रेम, आत्मानुभूति, सेकुलरिज्म, क्रिटिकल थिंकिंग आदि का विकास फेस टू फेस टीचिंग से ही संभव है किसी ऑनलाइन मशीनी पद्धति से नहीं! ऑनलाइन एजुकेशन एक नया बाज़ार खोलेगी शिक्षा में! 

सरकार ने नीति में कह तो दिया है कि स्कूली शिक्षा में क्लासिकल भारतीय भाषाओं में पढ़ाई होगी लेकिन कैसे होगी? क्या हमारे पास इन भाषाओ के इतने शिक्षक हैं भी? ऊपर से आज भारत की एक बड़ी आबादी प्रवास करती रहती है एक राज्य से दूसरे राज्य में, ऐसी स्थिति में बच्चों की मातृभाषा या home language कौन तय करेगा और उनकी पढ़ाई कैसे होगी! इसका भी कोई ठोस जवाब नहीं है ड्राफ्ट में! ठीक इसी तरह ड्राफ्ट में RTE (शिक्षा के अधिकार) को 3 से 18 वर्ष तक सभी बच्चों तक प्रसार करने का विजन रखा है लेकिन बिना इसे क़ानूनी अधिकार बनाये! अर्थात RTE बस 6 से 14 साल तक (एलिमेंटरी एजुकेशन) ही क़ानूनी अधिकार है! अर्थात शुरू के तीन साल और 8वीं के बाद 4 साल क़ानूनी दायरे से बाहर होंगे! जब क़ानूनी दायरे वाला ही अभी ढंग लागू नहीं हो सका है पिछले 10 सालों में तो जो क़ानूनी बाध्यता नहीं है वो कैसे क्रियान्वित होगा समझा जा सकता है! 

कुल मिलाकर अब शिक्षण संस्थान घटेंगे, निजीकरण बढ़ेगा, उच्चतर शिक्षा मँहगी होगी, सामाजिक-मानविकी विषयों की माँग बाज़ार में कम होगी तो ज़ाहिर है इनकी पढ़ाई भी कम कॉलेजों में होगी, महँगी शिक्षा देश के ग़रीब दलित-पिछड़े-आदिवासी और लड़कियों के लिए ड्रॉपआउट बढ़ायेंगे! शिक्षकों की नौकरियां अस्थायी होंगी! शिक्षक एक बेज़ुबान श्रमिक बना दिया जायेगा जिससे बच्चों में क्रिटिकल थिंकिंग विकसित होने की जो कामना इस नीति में कई बार की गयी है वो तो होने से रही! सरकार की आलोचना अब शिक्षकों की नौकरी छीन सकती है! वोकेशनल ट्रेनिंग के नाम पर सस्ते कुशल मजदूर पैदा किये जायेंगे बाज़ार के लिए! WTO और GATT के तहत अब शिक्षा पूरी तरह एक विनिमय वस्तु बनने की ओर बढ़ेगी मतलब जिसके पास जितना पैसा वो उतनी बेहतर शिक्षा ख़रीद सकेगा! सबसे बड़ी बात कि इस नीति को क्रियान्वित करने का कोई समयबद्ध, वित्तीय और संरचनात्मक योजना नहीं दी गयी है! बाकी बातें भी क्रियान्वयन पर निर्भर करती हैं!

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