क्या पवित्र कुरान ईश्वरीय ग्रन्थ है??
क्या पवित्र कुरआन ईश्वरीय ग्रंथ है या हज़रत मुहम्मद की रचना?
प्रथम प्रमाण: आज यह बात सारे धार्मिक इतिहासकार स्वीकार कर चुके हैं, कि हज़रत मुहम्मद ईमानदारी से यह विश्वास रखते थे कि उन्हें ईश्वर की ओर से संदेश प्राप्त हो रहा था। उदाहरणार्थ विलियम मोंटगोमेरी वाट (William Montgomery Watt) अपनी पुस्तक, मुहम्मद, प्रॉफ़ेट एंड स्टेट्स्मेन (Muhammad, Prophet and Statesman) में लिखते हैं,
“One of the common allegations against Muhammad is that he was an impostor, who to satisfy his ambition and his lust propagated religious teachings which he himself knew to be false. Such insincerity makes the development of the Islamic religion incomprehensible. …Only a profound belief in himself and his mission explains Muhammad’s readiness to endure hardship and persecution during the Meccan period when from a secular point of view there was no prospect of success. Without sincerity how could he have won the allegiance and even devotion of men of strong and upright character like Abu-Bakr and ‘Umar?… There is thus a strong case for holding that Muhammad was sincere.”[Muhammad, Prophet and Statesman.Oxford University Press, 1961. Pg. 232.]
अनुवाद:
“मुहम्मद के विरुद्ध लगाए जाने वाले आरोपों में से एक आरोप यह है कि वह एक पाखंडी व्यक्ति था, जिसने अपनी महत्वाकांक्षा और वासना की संतुष्टि के लिए अपने मत का प्रचार किया, यह जानते हुए कि उसका मत झूठा है। लेकिन इस प्रकार की निष्ठाहीनता के बावजूद इस्लाम का विकास हो, यह समझ से बाहर है”… “मक्का के दौर में, जबकि इस्लाम की सफलता की कोई संभावना नहीं दिख रही थी, मुहम्मद का सभी प्रकार की कठिनाइयाँ और उत्पीड़न सहने का एकमात्र कारण ही यह था कि वे खुद में और अपने मिशन में ईमादारी के साथ गहरा विश्वास रखते थे। इस ईमानदारी के बगैर यह कैसे संभव था कि वे अबू बकर और उमर जैसे, मजबूत और ईमानदार चरित्र के व्यक्तियों का समर्थन और उनकी भक्ति जीत सकते थे? इस तरह यह पक्ष काफी मज़बूत है कि मुहम्मद निष्कपट और ईमानदार थे।” [Muhammad, Prophet and Statesman, प्रकाशक: Oxford University Press, 1961 संस्करण, पृष्ठ 232]
यह मेरा पहला प्रमाण है। यह तथ्य कि मुहम्मद साहब मक्का में 13 वर्षों तक भयंकर कठिनाइयों और उत्पीड़न को सहन करते रहे, साबित करता है कि वे इस बात पर गहरा विश्वास रखते थे कि वे ईश्वर की ओर से संदेश प्राप्त कर रहे हैं। हाँ मगर इस से यह साबित नहीं होता कि उनका यह विश्वास वास्तव में सही था। लेकिन इस संभावना का खंडन अवश्य होता है कि वे जान बूझ कर लोगों को धोका दे रहे थे। एक ऐसा व्यक्ति जो ईमानदारी से यह विश्वास रखता हो कि वह जो कुछ कर रह है वो ईश्वर के कहने पर कर रहा है और वह व्यक्ति जिसको मालूम हो कि वो दूसरों को धोका दे रहा है, इन दोनों में काफी अन्तर है।
दूसरा प्रमाण: आपत्ति करने वाले आपत्ति कर सकते हैं कि यद्यपि वे अपने विश्वास में ईमानदार थे, पर यह उनका भ्रम हो सकता था कि वे ईश्वर के दूत हैं। यह एक जायज़ प्रश्न है। परन्तू, हज़रत मुहम्मद के जीवन की कुछ घटनाएँ, इस प्रश्न का खंडन करती हैं। उदाहरणार्थ, विश्वसनीय अहादीस (हज़रत मुहम्मद के जीवन, कथन, आदि का संग्रह) में एक घटना का वर्णन मिलता है कि हज़रत मुहम्मद के एक पुत्र हुए थे, जिंका नाम उनहों ने इब्राहीम रखा। इस पुत्र की बचपन में ही मृत्यु हुई जब वह 2 वर्ष के थे। हदीस में इस घटना का यूं वर्णन मिलता है,
“अल्लाह के रसूल (स.) के जमाने में सूरज ग्रहण उस दिन हुआ जिन दिन आपके लाडले पुत्र इबरहीन की मृत्यु हुई। लोगों ने खयाल किया इबरहीन की मृत्यु के कारण सूर्य ग्रहण हुआ है (अर्थात आसमान भी गमगीन है)। इस पर अल्लाह के रसूल ने फरमाया की चंद और सूर्य का ग्रहण किसी की मृत्यु या पैदाइश से नहीं होता। जब तुम ग्रहण देखो तो नमाज़ पढ़ो और अल्लाह से दुआ करो।”[बुखारी किताब अल-कसूफ़, अध्याय 1]
अब यदि वे किसी भ्रम मे होते कि वे अल्लाह के रसूल हैं, तो लोगों की इस बात को मान लेते और स्वयं भी इसी प्रकार सोचते। यदि वे धोखेबाज़ होते तो इस घटना और लोगों के अंधविश्वास को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करते। परन्तू उनहों ने लोगों के इस अंधविश्वास को साफ नकार दिया कि ग्रहण का संबंध किसी के जनम एवं मृत्यु से होता है। इसी घटना की तुलना अब बाइबल के लेखकों के द्वारा रचे उस किस्से से कीजिए जिस में उनहों ने ईसाई मत के अनुसार ईश्वर के पुत्र ईसा मसीह को क्रूस पर चड़ाने के समय कुछ इसी प्रकार की प्रकृतिक घटनाओं का होना लिखा। इन घटनाओं को बाइबल के लेखकों ने इस सबूत के तौर पर पेश किया है कि वास्तव में ईसा ईश्वर के पुत्र थे, जबकि यह केवल एक संयोग था। बाइबल का वर्णन कुछ इस प्रकार है,
“उस समय दिन के बारह बजे होंगे तभी तीन बजे तक समूची धरती पर गहरा अंधकार छा गया। सूरज भी नहीं चमक रहा था। उधर मन्दिर में परदे फट कर दो टुकड़े हो गये। यीशु ने ऊँचे स्वर में पुकारा, “हे परम पिता, मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों सौंपता हूँ।” यह कहकर उसने प्राण छोड़ दिये। जब रोमी सेनानायक ने, जो कुछ घटा था, उसे देखा तो परमेश्वर की प्रशंसा करते हुए उसने कहा, “यह निश्चय ही एक अच्छा मनुष्य था!” [बाइबल, लूका अध्याय 23, श्लोक 44-47]
देखिए कि बाइबल के लेखक ने किस प्रकार एक प्रकृतिक मौसमी बदलाव और रूमी अंधविश्वासी के वचनों को अपने मत के फायिदे के लिए इस्तेमाल किया है। यह दूसरा प्रमाण था कि मुहम्मद (स.) निष्कपट होने के साथ साथ भ्रमित भी नहीं थे। वह ईश्वरीय प्रेरणा से बोलते थे।
तीसरा प्रमाण: मुहम्मद (स.) लिखना पढ़ना नहीं जानते थे। उनके विरोधी भी इस तथ्य को जानते थे। और जब पवित्र कुरआन ने इस तथ्य की तरफ इशारा किया तो उनके किसी भी विरोधी ने इस का इंकार नहीं किया। कुरआन ने मुहम्मद (स.) से फरमाया
وَمَا كُنتَ تَتْلُو مِن قَبْلِهِ مِن كِتَابٍ وَلَا تَخُطُّهُ بِيَمِينِكَ ۖ إِذًا لَّارْتَابَ الْمُبْطِلُونَ
“इस (कुरआन) से पहले तुम न कोई किताब पढ़ते थे और न उसे अपने हाथ से लिखते ही थे। ऐसा होता तो ये मिथ्यावादी सन्देह में पड़ सकते थे” [सूरह अंकबूत 29, आयत 48]
पवित्र कुरआन ने एक उच्च सिद्धान्त बताया है कि हज़रत मुहम्मद (स.) से पूर्व सभी सच्चे पैगंबर अल्लाह की तरफ से थे, और सभी ने एक ईश्वर की उपासना की शिक्षा दी है। यह एक ऐसा सिद्धान्त है जिसे कोई भी व्यक्ति उन सभी पैगंबरों से संबन्धित धार्मिक ग्रन्थों को पढे बिना, काइम नहीं कर सकता। परन्तू अल्लाह के रसूल (स.) न दुनिया में फिरे और न कोई किताब पढ़ी। इस लिए कुरआन ने यह प्रमाण दिया कि मुहम्मद (स.) तो पढ़ना न जानते थे। यदि पढ़ना जानते तो संदेह की गुंजाइश हो सकती थी कि यह सिद्धान्त उनहों ने खुद बनाया।
चौथा प्रमाण: पवित्र कुरआन में कई स्थान ऐसे हैं जहां हज़रत मुहम्मद (स.) को कुछ बहुत छोटी गलतियों के लिए टोका और अनुशासित किया गया है, और वो भी ऐसी गलतियाँ कि जिन की तरफ किसी ने ध्यान भी नही दिया था। उदाहरणार्थ, हम सूरह अबस (सूरह नंबर 80) में पढ़ते हैं कि हज़रत मुहम्मद (स.) जब कुरेश कबीले के अभिजात वर्ग से बात कर रहे थे और इस्लाम की शिक्षाएँ समझा रहे थे तो एक अंधे व्यक्ति, अब्दुल्लाह बिन उम्मि मकतूम आगाए और उनहों ने अल्लाह के रसूल (स.) का ध्यान अपनी ओर फेरना चाहा, जिसे अल्लाह के रसूल (स) ने पसंद नहीं किया और उनहों ने त्योरी चढ़ाई और मुँह फेर लिया और कुरेश के बड़े लोगों से बात करते रहे। अल्लाह के रसूल (स) ने समझा कि यह तो अपने आदमी हैं, जब चाहे पूछ लेते। इस समय क्या ज़रूरत थी जबकि बड़े नास्तिक सरदारों को मैं अल्लाह का संदेश समझा रहा हूँ। इस पर पवित्र कुरआन में अल्लाह ने आयात नाज़िल फरमाईं जिन में अल्लाह के रसूल (स) को अनुशासित किया गया और बताया गया कि बड़े आदमियों की इतनी परवाह न करो कि उनकी और ध्यान देने से उन व्यक्तियों से ध्यान हट जाए जो स्वयं आप से कुछ सीखना चाहते हों। कुरआन का वर्णन इस तरह है।
عَبَسَ وَتَوَلَّىٰ ﴿١﴾ أَن جَاءَهُ الْأَعْمَىٰ ﴿٢﴾ وَمَا يُدْرِيكَ لَعَلَّهُ يَزَّكَّىٰ ﴿٣﴾ أَوْ يَذَّكَّرُ فَتَنفَعَهُ الذِّكْرَىٰ ﴿٤﴾ أَمَّا مَنِ اسْتَغْنَىٰ ﴿٥﴾ فَأَنتَ لَهُ تَصَدَّىٰ ﴿٦﴾ وَمَا عَلَيْكَ أَلَّا يَزَّكَّىٰ ﴿٧﴾ وَأَمَّا مَن جَاءَكَ يَسْعَىٰ ﴿٨﴾ وَهُوَ يَخْشَىٰ ﴾ فَأَنتَ عَنْهُ تَلَهَّىٰ ﴿١٠) كَلَّا إِنَّهَا تَذْكِرَةٌ
माथे पर बल आ गए और मुँह फेर लिया, (1) इस कारण कि उसके पास अन्धा आ गया। (2) और आपको क्या मालूम शायद वह स्वयं को सँवारता-निखारता हो (3) या नसीहत हासिल करता हो तो नसीहत उसके लिए लाभदायक हो? (4) रहा वह व्यक्ति जो धनी हो गया है(5) आप उसके पीछे पड़े हैं – (6) हालाँकि वह अपने को न निखारे तो आप पर कोई ज़िम्मेदारी नहीं आती – (7) और रहा वह व्यक्ति जो स्वयं ही आप के पास दौड़ता हुआ आया, (8) और वह डरता भी है, (9) तो आप उससे बेपरवाई करते हैं (10) ऐसा न करो, निसंदेह यह तो एक नसीहत नामा है। (11)
हम यह जानते हैं कि जब कोई व्यक्ति आपस में बात कर रहे हों तो बीच में टोकना अच्छा नहीं लगता। यह एक स्वाभाविक बात है। तो अल्लाह के रसूल को इस साथी का टोकना अच्छा न लगना कुछ बड़ी बात नहीं थी। इसके अतिरिक्त उन्होने केवल अपने मुंह को फेर दिया और उस अंधे व्यक्ति को डांटा नहीं। यदि मान भी लिया जाए कि अल्लाह के रसूल (स) को मुंह नहीं फेरना चाहिए था, तब भी वो उस अंधे व्यक्ति से मिल कर माफी मांग लेते और बात खतम हो जाती। किसी और को इस घटना की खबर भी नहीं होती। और कुरेश के सरदारों के लिए भी कोई बड़ी बात नहीं थी। पर इस घटना को सदा के लिए पवित्र कुरआन का हिस्सा बना लेना और अल्लाह की तरफ से इस व्यवहार पर अनुशासित किए जाने का वर्णन कोई अपने द्वारा रची गई पुस्तक में क्यों रखे? इस से उसे क्या लाभ? स्वार्थी लोग तो अपने बड़े बड़े पापों को छुपा लेते हैं, चोटी और महत्वहीन गलतियों की तो बात ही नहीं। यदि मुहम्मद (स) ने स्वयं कुरआन को घड़ लिया होता तो अपनी इस महंत्वहीन गलती को क्यों इतना प्रचारित करते? यह साबित करता है कि कुरआन उनकी रचना नहीं है बल्कि अल्लाह की तरफ से उतरा संदेश है और जो अल्लाह ने उन की ओर उतारा उनको उनहों ने सबको सुनाया चाहे वह स्वयं उनको ही अनुशासित क्यों न कर रहा हो।
पांचवा प्रमाण: पवित्र कुरआन में अपने से पूर्व के इतिहास का वर्णन है। इस ऐतिहासिक जानकारी की स्वतंत्र जांच करने से पता चलता है कि हज़रत मुहम्मद और उनके साथियों को इसकी जानकारी नहीं थी और कुरआन ने जो उन्हें जानकारी दी वह बाद में सच साबित हुई। कई लोग यह आरोप लगाते हैं कि मुहम्मद साहब ने बाइबल में से पूर्व के पैगंबरों की जानकारी चुरा के कुरआन में रख दी। वे इस बात की तरफ ध्यान नहीं देते कि कुरआन तो अपने से पूर्व अल्लाह की ओर से आए हुए ग्रन्थों की पुष्टि करता है कि उनमें भी वही संदेश था जो कुरआन दोहरा रहा है। दो ग्रन्थों में समानता होने का अर्थ यह नहीं है कि एक ने दूसरे से जानकारी चराई है। इसका अर्थ यह है कि दोनों का मूल संदेश एक ही है क्यों कि दोनों एक ही मालिक की ओर से आए हैं। हाँ यहाँ यह ज़रूर स्मरण रहे कि कुरआन से पूर्व जो भी ग्रंथ आए उनमें स्वार्थी मनुष्यों ने अपने फाईदे के लिए परिवर्तन कर दिया था, जिस से उनके अंदर काफी गलत जानकारी भी मिल गई थी, जो कि वास्तविक इतिहास के विरुद्ध थी। अब यदि मुहम्मद साहब ने कुरआन को इन पूर्व के ग्रन्थों से चुराया होता तो इन ग्रन्थों में मनुष्य परिवर्तन के कारण होने वाली ऐतिहासिक गलतियों को भी वे कुरआन में सही मान कर रख देते। परन्तू जब हम वर्तमान बाइबल और कुरआन का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तो आश्चर्य होता है कि हमारा आधुनिक ऐतिहासिक ज्ञान कुरआन के वर्णन की पुष्टि करता है जबकि बाइबल मैं ठीक उनही घटनाओं का वर्णन इतिहास के विरुद्ध जाता है। एक उदाहरण से मेरी यह बात साफ हो जाएगी बाइबल के भाग ‘पुराना विधान’ (Old Testament) में, हज़रत इब्राहीम और हज़रत युसुफ के समय मिस्र के शासक को ‘फिरौन’ (Pharoah) कहा गया है। उदाहरणार्थ देखिए बाइबल में उत्पत्ति (Genesis) अध्याय 12, श्लोक 17,18,20 और उत्पत्ति (Genesis) अध्याय 41, श्लोक 14,25,46। यह इतिहासिक दृष्टि से गलत है क्यों कि फिरौन वंश के शासक हज़रत मूसा के समय के आस पास मिस्र की सत्ता में आए। हज़रत युसुफ के समय जो वंश वहाँ के शासक थे उन्हें हिक्सास (Hyksos) कहा जाता था, ना कि फिरौन (Pharoah)। हिक्सास एशियायी नस्ल के थे और मिस्र की सत्ता पर 1720 ईसा पूर्व कब्जा कर लिया था। 1550 ईसा पूर्व में मूल मिस्री जनता ने इनके विरुद्ध विद्रोह किया और इस प्रकार मिस्र पर हिक्सास का शासन समाप्त हुआ। अब यदि हज़रत मुहम्मद (स) ने बाइबल से कहानियाँ सुन कर उन को कुरआन में लिखा होता तो यह ऐतिहासिक गलती कुरआन में भी पाई जाती और कुरआन भी सूरह युसुफ में, हज़रत युसुफ के समय के मिस्री शासक को फिरौन कहता। परन्तू कुरआन में इस शासक को कोई उपाधि न देकर केवल ‘अल्मलिक’ (सम्राट, बादशाह) कहा गया है। उदाहरण के लिए देखिए सूरह युसुफ 12, आयत 43 और 50। जबकि हज़रत मूसा के समय के मिस्री शासक को साफ साफ ‘फिरौन’ कहा है। इस उदाहरण से पता चलता है कि हज़रत मुहम्मद (स) ने बाइबल से कुछ नकल नहीं किया है क्योंकि नकल करने पर प्रक्षिप्त बाइबल की गलती कुरआन में भी शामिल हो जाती। कुरआन इस लिए उस सर्वज्ञ ईश्वर का संदेश है जिसको सत्य का ज्ञान है और अपने संदेश कुरआन में प्रक्षिप्त बाइबल की गलती को भी सुधारा।
छटा प्रमाण: पवित्र कुरआन ने हैरत अंगेज़ भविष्यवाणियाँ कीं जो भविष्य में शत प्रतिशत सही साबित हुईं। क्योंकि भविष्य का ज्ञान केवल अल्लाह के पास है, इस कारण कुरआन अल्लाह का कलाम साबित होता है। यदि पवित्र कुरआन की कोई भविष्य वाणी गलत साबित होती तो साफ पता चल जाता कि यह एक अल्पज्ञ मनुष्य द्वारा रचा गया है। हम सब यह जानते हैं कि हज़रत मुहम्मद (स) धार्मिक प्रचार के पहले 13 साल के दौर को ‘मक्की’ दौर कहा जाता है, जिस में उनके प्रचार का केंद्र केवल मक्का शहर रहा। इन दस वर्षों में कुरआन के जीतने सूरह (अध्याय) लोगों को सुनाए गए उन्हें ‘मक्की’ सूरह कहा जाता है। इस के बाद, उनके मदीना जाने से उनकी मृत्यु तक के दौर को ‘मदनी’ दौर कहा जाता है। और इस दौर में जो कुरआन की सूरह लोगों को सिखाई गईं उनको ‘मदनी’ सूरह कहा जाता है। ‘मक्की’ दौर के 10 वर्ष हज़रत मुहम्मद (स) के लिए बहुत कठिन दौर था, जिस में आपके संदेश को मुश्किल से केवल 150 लोगों ने स्वीकार किया। इस दौर में उनका प्रचार ज़ाहिरी तौर से असफल लग रहा था। लेकिन इस दौर में कुरआन ने एक भविष्यवाणी की जो कुरआन की ‘मक्की’ सूरह नस्र सूरह नंबर 110 में पढ़ी जा सकती है। इस में उनसे कहा गया था।
إِذَا جَاءَ نَصْرُ اللَّهِ وَالْفَتْحُ ﴿١﴾ وَرَأَيْتَ النَّاسَ يَدْخُلُونَ فِي دِينِ اللَّهِ أَفْوَاجًا ﴿٢﴾ فَسَبِّحْ بِحَمْدِ رَبِّكَ وَاسْتَغْفِرْهُ ۚ إِنَّهُ كَانَ تَوَّابًا ﴿٣
जब अल्लाह की सहायता आ जाए और विजय प्राप्त हो, (1) और तुम लोगों को देखो कि वे अल्लाह के दीन (धर्म) में गिरोह के गिरोह प्रवेश कर रहे है, (2) तो अपने रब की प्रशंसा करो और उससे क्षमा चाहो। निस्संदेह वह बड़ा तौबा क़बूल करनेवाला है (3)
13 वर्ष के प्रचार में 150 सहयोगी पाना, वो भी भीषण कठिनाइयों का सामना कर के, ज़ाहिरी तौर से असफ़ल ही लगा था। लेकिन उसी जमाने में कुरआन ने ये घोषणा कर दी कि आगे अल्लाह का असाधारण सहयोग मिलेगा और तुम देखोगे कि लोग भारी संख्या में, गिरोह के गिरोह, इस्लाम में प्रवेश करेंगे। इस घोषणा की पूर्ति उस समय असंभव लग रही थी। लेकिन दुनिया ने देखा कि अगर पहले 13 वर्षों में मात्र 150 आदमी इस्लाम में प्रवेश हुए, तो अगले 10 वर्ष में सम्पूर्ण अरब इस्लाम में प्रवेश कर गया। इस से भी अगले 15 वर्षों में इस्लाम ने उस जमाने की विश्व की दो महाशक्तियों, रूमी साम्राज्य (Byzantine Empire) और ईरान के सासानी साम्राज्य (Sassanid Empire) को अपने अंदर समा लिया, और इस से भी अगले 10 वर्षों में इस्लाम पश्चिम में स्पेन से पूर्व में भारत और इंडोनेशिया तक प्रवेश कर गया। इस तरह शानदार अंदाज़ में कुरआन के ईश्वरीय संदेश होने का प्रमाण मिल गया। इस्लाम के इस हैरत अंगेज़ फेलाव पर टिप्पणी करते हुए पश्चिमी इतिहासकार फिलिप क. हिट्टी Philip K. Hitti ने अपनी पुस्तक ‘दी अरब्स – ए शार्ट हिसटरि’ The Arabs- A Short History में यूं लिखा है
“If someone in the first third of the seventh Christian century had the audacity to prophesy that within a decade some unheralded, unforeseen power from the hitherto barbarians and little known land of Arabia was to make its appearance, hurl itself against the only two powers of the age, fall heir to the one-the Sassanids, and strip the other, the Byzantine of its fairest provinces, he would undoubtedly be declared a lunatic. Yet that was what happened. After the death of the Prophet, sterile Arabia seems to have been converted as if by magic into a nursery of heroes the like of whom, both in number and quality, would be hard to find anywhere.” [The Arabs- A Short History, by Philip K. Hitti, 1960, chapter Islam on the March, Pg. 42]
अनुवाद:
“सातवीं शताब्दी के पहले तिहाई जमाने में यदि किसी व्यक्ति को यह भविष्यवाणी करने की हिम्मत होती की एक दशक के अंदर अंदर, अब तक बर्बर और लगभग अंजान अरबवासीयों में से कोई अप्रत्याक्षित शक्ति उभर कर विश्व की दो महाशक्तियों से टकर लेगी, और इन में से एक- सासानी साम्राज्य की वारिस बनेगी और दूसरी, बाईज़न्टाइन साम्राज्य, को अपने अनेक अच्छे खासे प्रान्तों से वंचित कर देगी, तो उस व्यक्ति को अवश्य पागल घोषित कर दिया जाता। लेकिन वास्तव में हुआ यही। पैगंबर साहब की मृत्यु के बाद, बांझ अरबदेश, जैसे किसी जादू से, ऐसे महानायकों का घर बन गया जिनके जैसे व्यक्ति, संख्या और आचरण में कहीं भी ढूंढ पाना अतिकठिन होगा।”
[The Arabs- A Short History, by Philip K. Hitti, 1960 संस्करण, अध्याय Islam on the March, पृष्ठ 42]
यह जादू कुछ और नहीं था बल्कि ईश्वर की विशेष सहायता थी जो उनके साथ थी, क्योंकि उनहों ने अपने आप को इस काबिल बनाया था। तो यह मैं ने पवित्र कुरआन की अनेक भविष्यवाणियों में से एक भविष्यवाणी बताई। कुछ अन्य भविष्यवाणियाँ जो कुरआन में हैं उनका केवल संक्षिप्त वर्णन कर देता हूँ। 1. रूमी साम्राज्य ससानियों से हार के बाद दुबारा जीत जाएंगे। यह भविष्यवाणी सूरह रूम (30) की प्रथम आयात में पढ़ी जा सकती है। 2. पवित्र कुरआन ने पहले मक्की जमाने में ही आने वाले बदर के युद्ध में मुस्लिम फौज के हाथों मक्का के कुफ़्फ़ार की हार की भविष्यवाणी की थी जो सही साबित हुई। देखिए सूरह कमर 54 की आयत 44। इस तरह की बहुत सारी भविष्यवाणियाँ हैं जो कुरआन ने की और उस जमाने के लोगों ने उनको पूरा होते देखा। स्वयं हम भी कुरआन की एक भविष्यवाणी के पूरा होने की पुष्टि कर सकते हैं। कुरआन ने अपने बारे में भविष्यवाणी की थी
إِنَّا نَحْنُ نَزَّلْنَا الذِّكْرَ وَإِنَّا لَهُ لَحَافِظُونَ
“यह अनुसरण (कुरआन) निश्चय ही हमने अवतरित किया है और हम स्वयं इसके रक्षक हैं” [सूरह हिजर 15, आयत 9]
1400 वर्षों में कुरआन का एक अक्षर भी नहीं बदला जा सका। मुस्लिम आज जो कुरआन पढ़ते हैं, यह वही कुरआन है को 1400 वर्ष पूर्व हज़रत मुहम्मद (स) से उनके साथियों ने सुना, उनहों ने इसे अपनी संतानों को सिखाया, और उनहों ने अपने बच्चों को। यह मस्जिदों में, मदरसों में रोज़ पढ़ा जाता। दिन में 5 नमाजों में इसकी तिलावत सब सुनते। लाखों की संहया में मुस्लिम समाज के लोगों ने इसे याद किया और महफ़ूज किया। ऐसा इतिहास किसी अन्य धार्मिक ग्रंथ का नहीं है। अन्य धार्मिक ग्रंथ एक वर्ग विशेष तक सीमित रहने के कारण प्रक्षिप्त हो गए। जिस भाषा में वह ग्रंथ थे, वह भाषा धीरे धीरे लगभग लुप्त हो गईं, या एक वर्ग विशेष तक ही सीमित रह गई। आप स्वयं देख सकते हैं। वेदों की ‘संस्कृत’ (Sanskrit) के साथ क्या हुआ? तौरात की भाषा ‘इबरानी’ (Ancient Hebrew) के साथ क्या हुआ? इंजील की भाषा ‘आरमेइक’ (Aramaic) के साथ क्या हुआ? बोद्ध ग्रंथ धम्मपद की भाषा ‘पालि’ (Pali) के साथ क्या हुआ? यह सब ग्रंथ और इनकी भाषाएँ अधिकतर लोगों से दूर हो गए। केवल उन मतों के विशेष ज्ञानी वर्ग तक ही सीमित रह गए और इसी कारण उनका प्रक्षिप्त होना या उनमें परिवर्तन करना बहुत आसान हो गया। इस के विपरीत पवित्र कुरआन की ‘अरबी’ (Arabic) भाषा लुप्त नहीं हुई, बल्कि आज ‘संयुक्त राष्ट्र संगठन’ (UNO) की पाँच प्रमुख भाषाओं में से एक भाषा है। और कुरआन भी किसी विशेष वर्ग तक सीमित नहीं रहा, बल्कि आम मुसलमानों के घरों में ही रहा। आम मुसलमान इसे याद करते रहे और रोज़ इसको पढ़ते रहे जिस कारण इसका प्रक्षिप्त होना या इसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन होना संभव है ही नहीं।
सातवाँ प्रमाण: पवित्र कुरआन, ईश्वरीय संदेश होने की हैसियत से यह दावा करता है इस में परस्पर विरोधी बातें नहीं हैं।
कुरआन घोषणा करता है,
أَفَلَا يَتَدَبَّرُونَ الْقُرْآنَ ۚ وَلَوْ كَانَ مِنْ عِنْدِ غَيْرِ اللَّهِ لَوَجَدُوا فِيهِ اخْتِلَافًا كَثِيرًا
“क्या वे क़ुरआन में सोच-विचार नहीं करते? यदि यह अल्लाह के अतिरिक्त किसी और की ओर से होता, तो निश्चय ही वे इसमें बहुत सा विरोधाभास पाते ” [सूरह निसा 4, आयत 82]
कुरआन के कलामे इलाही (ईश्वरीय संदेश) होने का एक स्पष्ट प्रमाण यह है कि इस में किसी प्रकार का अंतर्विरोध नहीं है और साथ की इस का कोई बयान किसी भी जाने माने तथ्य के विरुद्ध नहीं है। यथार्थ से ही पूरी तरह अनुकूलता इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि यह अल्लाह के तरफ से आया हुआ संदेश है। यदि यह मनुष्य की रचना होती तो इस में बहुत सा विरोधाभास पाते। तथापि किसी भी सच्चाई का सच्चाई नज़र आना इस पर निर्भर है कि आदमी गंभीरता के साथ उसे समझने का प्रयत्न करे। कुरआन इख्तिलाफ़े कसीर (अंतर्विरोधों) से मुक्त होना उस व्यक्ति को दिखाई देगा जो कुरआन पर ‘तदब्बुर’ (चिंतन-मनन) करे। जो व्यक्ति तदब्बुर करना न चाहे वह मूर्खतापूर्ण आपत्तियाँ करता रहेगा। उदाहरणार्थ, किसी ने कुरआन में एक अंतर्विरोध दिखाने का प्रयत्न करते हुए लिखा कि कुरआन के एक स्थान में कहा गया है कि अल्लाह ने 1. दो दिन में धरती बनायी (41:9) 2.चार दिन में पहाड बनाये (41:10) 3. दो दिन में सात आकाश बनाये (41:12) यह कुल 8 दिन बनते हैं, पर सूरह युनुस 10:3 में कुरआन ने कहा तुम्हारा रब वही अल्लाह हैं जिसने धरती और आकाशों को 6 दिन में बनाया.. ये तो स्पष्ट विरोध है। मैंने जब इस पर चिंतन-मनन किया तो यह वास्तव में विरोध था ही नहीं। इस आपत्ति का मेरे द्वारा लिखा उत्तर आप यहाँ पढ़ सकते हैं। [वैबसाइट जिसमे ये लेख पब्लिश हुआ था कुछ कारणो से बंद है, जिसको इस संबंध मे स्पष्टीकरण चाहिए हो तो वो हमसे पूछ सकता है - आक़िब ख़ान]
ये कुरआन को ईश्वरीय ग्रंथ साबित करने के कुछ सरल प्रमाण मैं ने पाठकों से सामने रखे हैं। इस के अतिरिक्त कई प्रमाण हैं, जिनको भविष्य में आपके सामने लाऊँगा। मानवता को कुरआन का यही निमंत्रण है कि आओ इस संदेश पर विचार करो, और तुम जानोगे कि यह तुम्हारे बनाने वाले की ही ओर से आया है। कुरआन के ही शब्दों में ही इस लेख को समाप्त करता हूँ,
يَا أَيُّهَا النَّاسُ قَدْ جَاءَتْكُمْ مَوْعِظَةٌ مِنْ رَبِّكُمْ وَشِفَاءٌ لِمَا فِي الصُّدُورِ وَهُدًى وَرَحْمَةٌ لِلْمُؤْمِنِينَ
हे लोगो! निसंदेह तुम्हारे रब्ब की तरफ से तुम्हारे पास एक किताब आ चुकी है जो (सरासर) उपदेश है और वह हृदय में पाए जाने वाले रोगों को दूर करने वाली और इस पर विश्वास रखने वालों के लिए मार्गदर्शन और दया है” [सूरह युनूस 10, आयत 57]
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