ईद उल अज़हा


ईद उल अज़हा :-

बकराईद का "बकरे" से कोई लेना देना नहीं है , भारतीय उपमहाद्वीप में जिस पर्व को "बकराईद" कहा जाता है , यह नाम इस्लाम में कहीं नहीं मिलता।

दरअसल धार्मिक रूप से इसका नाम बकराईद ना होकर    
           
                           "ईद उल अज़्हा"

है।

दरअसल , भारतीय उपमहाद्वीप और विशेषकर भारत में आम बोलचाल की भाषा में यह शब्द इसलिए प्रचलित हो गया कि इस दिन मुसलमान लोग बकरे की भी कुर्बानी देते हैं , हालाँकि और भी जानवरों की कुर्बानी इसी दिन होती है परन्तु इसे बकरे के नाम से जोड़ दिया गया।

जो लोग यह समझते हैं कि इस्लाम मात्र 1400 साल पुराना धर्म है उनके लिए इस "ईद उल अज़्हा" को मनाने की वजह समझना बेहद ज़रूरी है।

मुसलमानों में "ईद उल फ़ित्र" ही एक मात्र खुशी वाला त्योहार है जो 30 रोज़े के बाद आता है।

"ईद उल फ़ित्र" जहाँ रमज़ान के पूरा होने पर मनाई जाती है वहीं वह कुरआन के नाज़िल होने के शुरू होने की ख़ुशी भी अपने अन्दर रखती है। ईद उल फ़ित्र के दिन खुशी मनाने का इसी लिए हुक्म है और इस दिन रोज़ा रखना बेहद सख्ती से मना है जिससे मुसलमानों की खुशियों में कोई कमी ना रह जाए।

तो "ईद उल अज़हा"  हज के पूरा होने पर मनाई जाती है। वहीं इन्ही दिनों में कुरआन 23 साल में नाज़िल हो कर पूरा हुआ था, और दीन के मुकम्मल होने का ऐलान कर दिया गया था। (सूरेह मायदा 3)

"ईद उल अज़हा" असल में हज से जुड़ी हुई है, और हज के तमाम अरकानों के एक हिस्सा "कुर्बानी" पूरी दुनिया के मुसलमान अपने अपने यहाँ करते हैं।

“कह दो कि मेरी नमाज़ मेरी क़ुरबानी ‘यानि’ मेरा जीना मेरा मरना अल्लाह के लिए है जो सब आलमों का रब है” – (कुरआन 6:162)

चुँकि पूरी दुनिया के मुसलमान तो हर साल हज नहीं कर सकते इस लिए "ईद उल अज़हा" के ज़रिये वो मक्का में हर साल होने वाले हज से जुड़ते हैं।

उन्ही की तरह क़ुरबानी करके अल्लाह के लिए क़ुरबानी के ज़ज्बे का इज़हार करते हैं और हाजी की तरह ही हज के दिनों में नमाज़ के बाद तकबीर पढ़ते और बाल वगैरह के काटने से परहेज़ करते हैं।

"हज" इसलाम में एक अहम इबादत है यह इस्लाम की पांच बुन्यादों में से एक है।

वैसे तो इसलाम में कुर्बानी का ज़िक्र आदम अलैहेस्सलाम (इस दुनिया के पहले इंसान) के वक्त से मिलता है, लेकिन इसलाम में बुनयादी तौर पर कुर्बानी हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के ज़माने से है , हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम , सल्लल्लाहो अलैहे वसल्ल्लम हज़रत मुहम्मद के वक्त से करीब 5000 साल(अंदाज़न) पहले हुए।

जब उन्होंने एक रात ख्वाब में अल्लाह के हुक्म पर अपने बेटे को कुर्बान करने की कोशिश की।

अल्लाह ने उनको अपनी सबसे प्यारी चीज़ उनके नाम कुर्बान करने का हुक्म दिया।

हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को 86 साल की उम्र में बहुत मिन्नतों और दुआओं के बाद औलाद हुई जिसे वह बेहद चाहते थे , उनकी नज़र में उनके 13 साल के बेटे "इस्माइल अलैहेस्सलाम" से अधिक प्रिय कोई नहीं था तो उन्होंने अल्लाह के हुक्म को पूरा करने के लिए  "इस्माइल अलैहेस्सलाम" को चुना और यह बात अपनी बीवी "हज़रा अलैहेस्सलाम" से कही तो उन्हें औलाद को खोने का गम तो था पर यह कह कर इसकी इजाज़त दे दी कि इसे कहीं और ले जाकर अल्लाह के हुक्म पर कुर्बान कर दें।

हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने ऐसा ही किया  
अपने बेटे की गर्दन पर उन्होंने छुड़ी चला दी और जब आँख खोली तो अपने बेटे की जगह "दुम्बा"(भेड़) को पाया , अल्लाह ने उनके बेटे के बदले एक जानवर की कुर्बानी ली और हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के इमान की परिक्षा सफलता से पूरी हुई।

तब से मुसलमान अपनी जान की कुर्बानी के निशान के तौर पर हर साल यह कुर्बानी देते हैं..

कुरान में हज़रत इब्राहिम अलैहेस्सलाम के लिए तमाम बार ज़िक्र है

अल-कुरान: “सलाम हो इब्राहीम पर,..” – (सूरेह साफ्फात १०९)

अल-कुरान: “बेशक वो हमारे मोमिन बन्दों में से था,..” – (सूरेह साफ्फात १११)

अल-कुरान: “बेशक इब्राहीम ‘अपनी जगह’ एक अलग उम्मत थे, अल्लाह के फर्माबरदार, सब बातिल खुदाओं से कट कर सिर्फ एक अल्लाह के होने वाले थे और वो अल्लाह के साथ किसी को शरीक करने वाले हरगिज़ नहीं थे,..” – (सूरेह नहल १२०)

तो एक तो यह समझिए कि इस्लाम कोई 1400 साल पुराना धर्म नहीं बल्कि 1400 साल पहले हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहेवसल्ल्म के ज़रिये कुरान उतारकर तमाम कमियों को दूर करते हुए अल्लाह ने इस्लाम को मुकम्मल अर्थात फुल और फाइनल , जीवन जीने का एक तरीका बताया।

दूसरे ईद उल अज़्हा का संबंध "बकरे" से ना होकर "हज" से है , कुर्बानी तो इस हज का एक हिस्सा है।

और तीसरे , पशु प्रेमी यह समझ लें कि इस धरती पर सर्वश्रेष्ठ जीव कौन है ?

"इंसान"

बाकी इस धरती की सभी चीज़ें इन्सानों के जीवन जीने के लिए ही बनाई गयी हैं और इनका ही उपयोग और उपभोग करके दुनिया लाखों वर्ष के बाद आज यहाँ तक पहुँची है।

यह कड़वा सच है कि इस धरती पर इंसानों का जीवन किसी भी अन्य जीव से अधिक महत्वपुर्ण है। और बकरे हों या अन्य जानवर भी इंसानों के लिए ही हैं उनके उपयोग में ही लाए जाते हैं।

बाकी हिन्दुस्तान में "ईद उल अज़हा" में कुर्बानी के कारण पूरी एक अर्थव्यवस्था पशु पालन के माध्यम से चलती है , जहाँ अधिकांश हिन्दू ही लाभान्वित होते हैं जो साल साल भर पशु पालन करके बकराईद के दिन अपने जानवर लगभग दो गुने दामों पर बेचकर अपने जीवन की आवश्कताओं को पूरा करते हैं।

कुर्बानी का ये भी एक सामाजिक पक्ष है कि गरीबों तक एक मोटी रकम पहुँच जाती है।

इस्लाम राजनैतिक परिस्थितियों और समय के साथ बदल जाने वाला धर्म नहीं , हाँ कुर्बानी का विरोध करके सिर्फ़ आप अपने आधे दिमाग के भक्तों की जहरीली आत्मा को संतुष्ट कर सकते हैं और वही कर रहे हैं।

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