ईद उल अज़हा
संसार के अन्य धर्मों मे ये मान्यता थी/है कि बलि दिए गए पशु का मांस ईश्वर खाता है और तब प्रसन्न होता है .... ईश्वर तक बलि दिए पशु का रक्त और मांस पहुंचाने के लिये वे लोग पशु के मांस को आग मे जला कर खत्म कर देते थे या अपने मन्दिरो मे देवता की मूर्ति के आगे बने कूप मे डाल देते थे अर्थात् मांस का कुछ भाग या सम्पूर्ण मांस इस तरह अकारण ही नष्ट कर डालते थे, या फिर ईश्वर तक उस मांस को पहुंचाने के लिए उन पुजारियों को खिलाते थे जिनके पेट पहले ही भरे होते थे। पशुओं के मांस की बर्बादी के कारण ही इन कर्मकाण्डों का ही अनेक महात्माओं ने विरोध किया है।
परंतु इस्लाम मे पशुओं की कुरबानी का उद्देश्य अल्लाह को वो मांस खिलाकर प्रसन्न करना नही है बल्कि अल्लाह तो खाने-पीने , सोने-जागने और प्रसन्न और दुखी होने जैसी मानवीय भावनाओं से परे है....
देखिए अल्लाह स्वयं पवित्र कुरान मे फरमाता है कि कुरबानी के पशुओं के रक्त और मांस उसे नही चाहिए बल्कि वो तो मनुष्य को सन्मार्गी बनाना चाहता है ....
" ना उनके मांस अल्लाह को पहुंचते हैं और न उनका रक्त ही अल्लाह को पहुंचता है .. किन्तु उस तक तुम्हारा तक़वा ( अल्लाह के लिए सत्कार्य का वरण और दुष्कर्म का त्याग करने की प्रवृत्ति ) पहुंचता है॥"
[ पवित्र कुरान 22:37 ]
यदि हम अल्लाह की आज्ञा मानकर मानव जाति की सेवा करें तो अल्लाह का आशीर्वाद हमें प्राप्त होगा जिसे मानवीय भाषा मे हम अल्लाह का प्रसन्न होना कह देते हैं .... इस के विपरीत यदि हम मनुष्यों को कष्ट दें तो उस के परिणामस्वरूप अल्लाह हमें दण्ड देगा, जिस स्थिति को हम मानवीय भाषा मे अल्लाह की अप्रसन्नता या क्रोध कह देते हैं ।
दुनिया भर में हरित क्रांति आने के बाद भी...
हर जगह बिजली, डीप फ्रीज और कोल्ड स्टोर्स उपलब्ध होने के बाद भी....
दुनिया की 98% जनसंख्या मांसाहार पर आश्रित है.
क्योंकि मांसाहार पौष्टिक तत्वों से परिपूर्ण तथा आसानी से उपलब्ध होता है
लिहाजा पशुओं की कुरबानी का आशय भी यही है कि पैसे वाला मनुष्य, उन निर्धन मनुष्यों को वो भोजन दान करे, जो मनुष्य निर्धनता के कारण कभी पौष्टिक भोजन करने की बात भी नही सोच पाते... वे अक्सर भूखे रहते हैं, या जब भोजन करते हैं तो न्यून पौष्टिकता वाला भोजन करते हैं, क्योंकि वो भोजन सस्ता होता है, ऐसे मे निर्धन लोग कुपोषण और अनेक रोगों का शिकार हो जाते हैं
अल्लाह स्पष्ट रूप से फरमाता है कि कुरबानी का मांस मनुष्य के स्वयं के उपयोग के लिए और गरीबों को दान करने के लिए है, न कि अल्लाह को भेंट चढ़ाने या पण्डे पुजारियों के लिए :-
"ताकि वो उन लाभों को देखें जो वहाँ उन के लिए रखे गए हैं, और कुछ ज्ञात और निश्चित दिनों मे उन चौपायो पर अल्लाह का नाम लें, जो अल्लाह ने उन्हें दिए हैं . फिर उस मे से खुद भी खाओ और भूखे तंगहाल को भी खिलाओ "
[पवित्र कुरान 22:28]
तो बकरीद मे हम पशु की कुरबानी कर के न उस का मांस जलाते हैं, न व्यर्थ फेंकते हैं, न भरे पेट वाले पण्डे पुजारी को खिलाते है .... बल्कि मांस के तीन भाग करते हैं एक भाग निर्धन मोहताजो को दान करते हैं, दूसरा भाग देने के लिए अपने कमजोर आर्थिक स्थिति वाले दोस्त और रिश्तेदारों को वरीयता देने का आदेश है ...और तीसरा भाग स्वयं के खाने के लिए रखते हैं ..... और पवित्र हदीस मे ये आदेश है कि यदि हमारे आसपास निर्धन लोग अधिक हैं तो हमें सारा का सारा मांस उनमें दान कर देना चाहिए ॥
सो बकरीद की कुरबानी हमारे विचार मे कोई बेकार का आडम्बर नही बल्कि ग़रीब व मोहताज लोगों की सेवा का एक बड़ा पुण्य अवसर है॥
ईश्वर की दी हुई नेमतों को व्यर्थ नष्ट करना वाकई एक बडा पाप है क्योंकि दुनिया मे संसाधन सीमित हैं , यदि हम धार्मिक त्योहार के नाम पर अनाज की बालियां जलाकर नष्ट करते हों, त्योहार के नाम पर पेड़ काटकर लकड़ियाँ व्यर्थ ही जला डालते हों, त्योहार के नाम पर दूध और मिठाई जैसी खाने पीने की महंगी चीजें नदी नालों मे बहाकर व्यर्थ कर देते हों, तो उस की जरूर निन्दा करना चाहिए, क्योंकि इन संसाधनो को व्यर्थ में नष्ट कर के हम कहीं न कहीं, किसी न किसी को भूखा जरूर मार देते हैं....
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