सवाल
मेरा एक सवाल है कि जिनके पास कभी इस्लाम की दावत पहुंचा ही नहीं या फिर जिनका जन्म से ही सोचने समझने की क्षमता ना हो तो फिर
1- ऐसे लोगो को अल्लाह तआला ने क्यों बनाया क्यों की आदमजात तो इबादत के लिए ही बनाए गए है।
2- और उनका क्या होगा वो जन्नत में जाएंगे या दोजक में?
आपके सवाल का जवाब देने से पहले यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि "इन्सान को इबादत के लिये पैदा किया गया है".... इसका मतलब क्या है.
इस्लाम में इबादत का अर्थ भक्ति जैसा नहीं है कि जिसमें सिर्फ़ अपने ईष्ट की स्तुति, गुणगान, भजन-कीर्तन, ज़िक्र-ओ-तसबीह, मनक़बत, क़व्वाली, उसको ध्यान करके नाचना, गाना और ताली पीटना हो.
इस्लाम में इबादत का अर्थ होता है कि मालिक के निर्देशों के अनुरूप जीवन-यापन करना. इसमें मालिक की स्तुति-गुणगान से आगे बढ़कर अपने कर्मों को उसकी इच्छा के अनुरूप ढालना होता है. इसलिये इस्लाम में इबादत एक कर्म-प्रधान चीज़ है. जिस कर्म को मालिक के निर्देशों के अनुरूप किया गया वह इबादत है और जो निर्देशों के विरुद्ध किया गया वह बग़ावत है.
दूसरी चीज़ जो समझने की है वह यह है कि हर व्यक्ति अलग होता है. क्योंकि वह अलग समय, अलग परिस्थिति और अलग क्षमताओं के साथ पैदा किया जाता है. इसलिये उसके कर्मों की जांच-परख के लिये भी अलग-अलग चीज़ें, अलग परिस्थितियां और अलग-अलग विषय उत्पन्न किये जाते हैं. इन्हीं विभिन्न दृश्यों और परिस्थितियों को उत्पन्न करने के लिये ही विभिन्न प्राकृतिक घटनायें-दुघर्टनायें भी घटती हैं और इसी के तहत आदमियों में भी विभिन्न मानसिक और शारीरिक अवस्थाओं वाले जनम लेते हैं. कोई जनम से ही तीव्र-बुद्धि वाला तो कोई जनम से ही मंद-बुद्धि वाला, कोई ह्रष्ट-पुष्ट तो कोई जनम से ही विकलांग होता है. अब इनके माध्यम से दूसरों के सामने परिस्थिति पैदा की जाती है कि वह अपना उत्तम कर्म करके अपना कर्तव्य करें.
इसके बाद अब आते हैं आपके सवाल पर.
आपका पहला सवाल था कि ऐसे आदमियों को पैदा ही क्यों किया जाता है....
ऊपर की वज़ाहत से समझ गये होंगे कि इन सबको पैदा करने का मक़सद क्या है.
आपका दूसरा सवाल था कि इन लोगों का क्या होगा जिन तक इस्लाम की बात नहीं पहुंची या जिनमें सोचने समझनें की सलाहियत ही नहीं है.
याद रखिये कि अल्लाहपाक नें फ़रमाया है कि वह अपने बन्दों पर ज़ुल्म नहीं करता. बंदो से सवालो जवाब उनको दी गई क्षमताओं के मद्देनज़र ही किये जायेंगे. इसीलिये मानसिक रूप से विक्षिप्त आदमी पर ना तो दुनिया का कोई क़ानून लागू होता है और ना ही अल्लाह के यहां उससे सवाल-ओ-जवाब होता है. जो भी इस तरह के लोग होंगे जो जनम से ही मंद बुद्धि होते हैं उनको अल्लाह बख़्श देगा और उनसे कोई पूछताछ ना होगी.
अब रहे वह लोग जिन तक इस्लाम का पैग़ाम ना पहुंचा तो उन के साथ क्या होगा?
आपको जानना चाहिये कि अल्लाह पाक नें इन्सानों के मार्गदर्शन के लिये दोहरी व्यवस्था की है. एक उसके नफ़्स के अंदर से, दूसरे नबियों के ज़रिये बाहर से.
अल्लाह पाक नें हर इन्सान को पैदा करते वक़्त अच्छे और बुरे की तमीज़ उसके नफ़्स के अंदर रख दी. और उसे अक़्ल भी दी कि अपनी अच्छाईयों को उभारे और अपनी बुराइयों को दबाये. जैसा कि सूरह शम्स ९१:७ में फ़रमाया कि -
" और (क़सम) नफ़्स की, और जब उसको आरास्ता किया (संवारा गया). फिर उस पर इल्हाम (उत्प्रेरित) कर दी उस पर उसकी अच्छाई और बुराई. कल्याण हो गया उसका जिसनें उसको (नफ़्स को) पाक़ (परिमार्जित) किया....."
अब अगर किसी के पास इस्लाम का पैग़ाम नहीं पहुचा और नबियों की बात नहीं पहुंची तो उससे उसको उसके नफ़्स के अंदर दी गई अच्छे और बुरे की तमीज़ करने वाली सलाहियत के बारे में पूछा जा सकता है कि जब तुमने अपने ज़मीर से अपने दिल से किसी चीज़ को अच्छा समझा था तो उसको अपनाया या ज़मीर को दबा दिया.
अब अगर किसी के पास इस्लाम का पैग़ाम नहीं पहुचा और नबियों की बात नहीं पहुंची तो उससे उसको उसके नफ़्स के अंदर दी गई अच्छे और बुरे की तमीज़ करने वाली सलाहियत के बारे में पूछा जा सकता है कि जब तुमने अपने ज़मीर से अपने दिल से किसी चीज़ को अच्छा समझा था तो उसको अपनाया या ज़मीर को दबा दिया.
याद रहे अगर इंसान अपने को दी गई तर्क और बुद्धि को इस्तेमाल करता है तब भी हक़ बात तक पहुंच जाता है कि क्या सही है और क्या ग़लत. लेकिन दिल में महसूस करने के बाद भी वह अपने पर तमाम मसलहतें हावी कर लेता है और ज़मीर को दबा देता है. तो जिन लोगों नें अल्लाह की दी हूई मार्गदर्शन की पहली सीढ़ी (अपने ज़मीर की आवाज़) भी ठुकरा दी उनकी पकड़ हो सकती है लेकिन उनकी पकड़ इस आधार पर ना होगी कि तुमनें नबी की फलां बात क्यों ना मानी. स्पष्ट है कि जब नबी की बात उस तक पहुंची ही नहीं तो ना मानने का सवाल कहां पैदा होता है. अल्लाह ऐसे लोगों में से उसकी नीयत और कर्म के हिसाब से जिसे चाहेगा बख़्श देगा.
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