कर्बला क्या सिखाती है?
कर्बला के तमाम सबक़ हमने पढ़े। लेकिन इन सबसे बढ़कर समाजियात और सियासत के कुछ अहम सबक़ भी कर्बला हमें सिखाती है।
इनमें एक है, अपने बचपन के दोस्तों और पुराने साथियों पर यक़ीन रखिए, वो मौत के दरवाज़े पर भी आपके साथ खड़े होते हैं। दूसरा, अपने बच्चों को हक़ और नाहक़ की तमीज़ सिखा दीजिए, वो आपकी हर अपेक्षा पर खरे उतरते हैं। तीसरा, मध्यम वर्ग के भरोसे कभी मत रहिए। ये वर्ग हमेशा अपने गुणा-भाग के हिसाब से फैसले लेता है। चौथा, अपने पुश्तैनी दुश्मन से भले की उम्मीद मत रखिए। वो मौक़ा लगते ही चोट देता है। और पांचवा सबक़ है, किसी भी हाल में हौंसला मत खोइए। अंत में आपकी उपलब्धियां नहीं बल्कि आपके संघर्ष याद रखे जाते हैं।
कर्बला कह रही है कि आपके साथी अगर हबीब, मुस्लिम, सइद, शबीब, जौन और बुरैर जैसे हों, भाई अब्बास और मुस्लिम जैसे, भतीजे क़ासिम,भांजे औन-मुहम्मद जैसे और बेटे अली अकबर जैसे हों तो फिर मौत भी मलाल का सबब नहीं बन सकती।
इसे ऐसे समझिए, शबे आशूर अली अकबर ने इमाम हुसैन से सवाल किया, बाबा क्या हम हक़ पर हैं? हां में जवाब मिला तो उन्होंने कहा कि बस बाबा, अब मौत हमसे आ मिले या हम मौत से, कोई फर्क़ नहीं पड़ता। क़ासिम इब्ने हसन से इमाम ने पूछा कि मौत को कितना जानते हो? हक़ पर चलते हुए मौत मेरे लिए शहद से ज़्यादा शीरीं है। कूफा भें शहादत से पहले मुस्लिम ने कहा कि मौत का ग़म नहीं है बस अफसोस है कि हुसैन को न बचा पाए। शबे आशूर अब्बास इब्ने अली ने बहन ज़ैनब को दिलासा देते हुए कहा, हमारे ज़िंदा रहते भाई या उनके बच्चों पर आंच नहीं आ सकती। इमामे आली मक़ाम ने अपने साथियों से चले जाने को कहा तो वो रो दिए। आप इस मुसीबत में रहो और हम चले जाएं? ऐसी ज़िल्लत की ज़िंदगी से मौत बेहतर है।
ऐसे लोग साथ हों तो फिर तादाद की परवाह किसे है? लेकिन अपने और अपनो के भरोसे भले दुनिया से लड़ जाइए, पाला बदलने वालों से, पुराने दुश्मनों से और निजी-नफे नुक़सान तौलने वालों से होशियार रहिए। ये तमाम चरित्र मध्यम वर्ग के हैं। आज अगर आप मुसीबत में किसी को बुलाइए, अधिकांश उन्हीं कूफा वासियों जैसे निकलेंगे जिनको वो ख़ुद धोखेबाज़ बताते हैं। नौकरीपेशा लोगों के भरोसे आप कोई क्रांति कर लीजिए, 99% कूफी निकलेंगे। कोई ख़ुद चला जाएगा, किसी की बीवी रोक लेगी, किसी का बाप ले जाएगा, किसी की ज़रूरतें उसको लपक लेंगी।
इस्लामिक इतिहास में भी बद्र की लड़ाई एक्सेप्शन है, वरना कमज़ोर, कम तादाद, और मज़लूम के साथ लोग या तो जुटेंगे नहीं, या उसके साथ लड़ेंगे नहीं, या फिर उसी पर दोष थोपकर निकल जाएंगे। कम से कम उल लोगों का भरोसा बिल्कुल मत कीजिए जो आपका साथ देने से पहले सौदा करें या कोई अपेक्षा रखें। अपेक्षा रखने वाला बेहतर डील देखता है, बेहतर इंसान नहीं। उमर इब्ने साद, शिम्र, इब्ने रिबि, इब्ने नुमैर जैसे लोग इसकी मिसाल हैं। ये यज़ीद या इमाम हुसैन के नहीं पद और पैसे के सगे हैं।
सबसे बड़ी बात, जिस शहर में आपके और आपके बाप के दुश्मनों की तादाद मुहब्बत करने वालों से ज़्यादा हो, वहां जाकर रहने का सोचिए भी मत। नीच लोगों से दूर रहना बेहतर।
बाक़ी ये हमारी आपकी बाते हैं। इमाम हुसैन इनमें किसी बात से अंजान न थे। हम उन्हें आज याद करते हैं क्योंकि ये सब जानने के बावजूद उन्होंने वो कारनामा किया जो हमारे लिए संभव नहीं है। उन्होंने बदतरीन हालात और बदतरीन लोगों से घिरकर इतिहास की वो गाथा लिखी जो अधिनायकवादी, केंद्रीकृत तानाशाही के विरूद्ध लड़ने वालों के लिए शानदार पाठ्यक्रम है।
उनको मारने वाले, उनका साथ छोड़ने वाले, धोखा देने वाले और उनके अलावा उनके बाप, भाई और नाना के दुश्मन 1400 साल बाद भी लानतों के घेरे में हैं। इमाम हुसैन का परचम आज उन शहरों पर लहरा रहा है जहां कभी उनको क़त्ल करने वाले दावा करते थे कि वो कामयाब हुए। आज दमिश्क में यज़ीद नहीं है और न कूफा में इब्ने ज़ियाद। उनके पैरोकार आज भी ज़लील हो रहे हैं, लानते खा रहे हैं जबकि कर्बला, कूफा, और दमिश्क समेत दुनिया के तक़रीबन हर शहर में आज हुसैन का नाम गूंज रहा है।
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