करबला क्या सिखाती है?

कर्बला में ख़ुद इमाम हुसैन के अलावा कम से कम छह सहाबिए रसूल इमामे आली मक़ाम की नुसरत में शहीद हुए हैं। इनमें हबीब इब्ने मज़ाहिर अल-असदी, मुस्लिम इब्ने औसजा अल असदी, अनस बिन हारिस अल कहिली, अब्दुल रहमान इब्ने अब्द रब अल अंसारी, अब्दुल्लाह इब्ने यक़तर अल हिमायरी, किनाना बिन अतीक़ अल तबलाग़ी, अम्मार बिन अबि सलामा अल दलानी अल हमदानी प्रमुख हैं। ये सभी कूफा शहर के वासी हैं।
इसी कूफा शहर में और भी कई सहाबी और ताबइन हैं। इनमें कर्बला से पहले कम से कम दो मुस्लिम इब्ने अक़ील के साथ शहीद हुए और बग़ावत के इल्ज़ाम में क़रीब दर्जन भर गिरफ्तार कर लिए गए। बाक़ी ख़ौफज़दा होकर घरों में बैठ गए।
नबी ए करीम के सहाबियों में दो ऐसे भी हैं जिनके सिर क़त्ले हुसैन में शरीक होने का गुनाह है। एक, अब्दुर रहमान बिन अब्ज़ा अल क़ुज़ाई और अबु अब्दुल क़ुद्दूस शबस बिन रिबी अल तमीमी। ये दोनों इब्ने ज़ियाद के लश्कर में हैं और क़त्ले हुसैन में पेश-पेश हैं। इन दोनों से मंसूब कई हदीस सही ए सित्ता में दर्ज हैं।
इनमें अनस बिन हारिस का मसला बड़ा दिलचस्प है। वो मुहद्दिस हैं बद्र के ज़माने के सहाबी हैं। अनस बद्र और हुनैन की जंग में बहादुरी से लड़े लेकिन उन्हें मुसलमानों की आपसी जंग पसंद नहीं। उन्होंने तय किया कि वो हुसैन और यज़ीद की लड़ाई से भी दूर रहेंगे। मुस्लिम इब्ने अक़ील कूफा पहुंचे तो अनस ने उनसे मिलने की भी ज़हमत नहीं की। जब कूफा में जंग के नगाड़े बजने लगे तो एक रात कूफा छोड़ कर निकल पड़े। 
रास्ते में अनस की मुलाक़ात हुर इब्ने जूफी से हुई। इब्ने जूफी कहीं सफर से लौटे थे और कूफा नहीं जाना चाहते थे क्योंकि उनको भी अनस की तरह इस लड़ाई से दूर रहना था। बातचीत में जूफी ने हुसैन से अपनी मुलाक़ात का ज़िक्र किया जो कुछ ही रोज़ पहले रास्ते में हुई थी। उन्होंने अनस को बताया कि हुसैन क्या चाहते हैं और क्यों कूफा जा रहे हैं। 
अनस को शर्मिंदगी हुई और वो कर्बला पहुंच गए। वहां इमाम हुसैन से कहा कि "मेरा दिल न आपसे लड़ने को था और न इब्ने ज़ियाद से। लेकिन ख़ुदा ने मुझे रौशनी दिखाई और मैं यहां आ गया।" आशूर के रोज़ अनस लड़ते हुए शहीद हुए और उनकी शहादत तारीख़ के सुनहरे पन्नों में दर्ज हो गई।
इसी जंग में दूसरी तरफ शबस इब्ने रिबी अल तमीमी भी है। सहाबी ए रसूल है, मुहद्दिस है और कूफे के मज़बूत लोगों में गिना जाता है। सनान इब्ने दाउद में किताब अल आदाब (vol 4, p. 315) और अल निसाई, सनान अल कुबरा (vol 6, p.204) पर उससे हदीस नक़्ल हैं। मज़ेदार बात है कि इसका नाम माविया को भेजी गई उस फेहरिस्त में भी है जिसमें क़ातिलाने उस्मान बिन अफ्फन के नाम थे। यानि ये शख़्स उस फित्ने में भी शरीक था। सिफ्फीन में ये शख़्स इमाम अली की फौज में था। मगर नहरवान में ये ख़ारजियों की तरफ से इमाम अली के मुक़ाबिल आ गया। कर्बला में ये इब्ने ज़ियाद की फौज में पैदल सिपाहियों का सरदार है।
इससे क्या सबक़ मिलता है? यही कि ईमान लाना और ईमान पर क़ायम रहना बिल्कुल अलग बातें हैं। दिल साफ हो तो अनस बिन हारिस की तरह इंसान बीच रास्ते से हक़ की तरफ पलट आता है। अगर इंसान गुनाह पर आमादा हो तो उसका सहाबी होना, मुहद्दिस होना, सब ज़ाया हो जाता है। कर्बला हमें यही बताती है कि इंसान का मरते वक़्त तक ईमानो-हक़ पर क़ायम रहना ज़रूरी है। वरना यूं तो इब्लीस को भी कभी दावा था कि वो ख़ुदा का सबसे क़रीबी है। एक इन्कार ने क़यामत तक के लिए लानत का मुस्तहक़ बना दिया।

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