कर्बला क्या सिखाती है?.

ज़ुहैर इब्ने क़ैन अल बजली कूफा के संभ्रांत लोगों में गिने जाते थे। पेशे से व्यापारी थे और उस वक़्त के अक़ीदे के लिहाज़ से उस्मानी। उस्मानी, यानी वो लोग जो मानते थे कि अली इब्ने अबु तालिब ने अपने से पहले ख़लीफा रहे उस्मान बिन अफ्फन के हत्यारों के साथ ढीलाई बरती और इंसाफ नहीं किया।
बहरहाल, ज़ुहैर हज करके लौट रहे थे। रास्ते में उनका क़ाफिला एक जगह ठहरा। उनसे कुछ ही दूरी पर हुसैन इब्ने अली के परिवार के ख़ेमे लगे थे। हुसैन हज अधूरा छोड़कर कूफा की तरफ निकले थे। अपने भाई मुहम्मद ए हनफिया को लिखे एक पैग़ाम में उन्होंने कहा कि मैं नहीं चाहता कि मक्का या मदीना की ज़मीन पर ख़ूंरेज़ी हो और ये इल्ज़ाम मेरे सिर आए।
बहरहाल, इमाम हुसैन ने अपने साथियों से ज़ुहैर के क़ाफिले के बारे में दरयाफ्त किया। उन्होंने पता करके बताया कि, कूफे का कोई मौअतबर शख़्स है, हज करके लौट रहा है। इमाम हुसैन ने अपने भाई अब्बास इब्ने अली को बुलाया और कहा कि उस क़ाफिले के सालार के पास जाएं और उनसे कहें कि हुसैन बिन अली आपसे मिलना चाहते हैं। 
अब्बास बिन अली भाई का पैग़ाम लेकर पहुंचे। ज़ुहैर ने उनसे नाम-पता पूछा और आने का मक़सद दरयाफ्त किया। हुसैन बिन अली का नाम सुना तो ज़ुहैर ने नफरत से मुंह फेर लिया और कहा कि उनसे जाकर कहो कि हमारी कोई इबादत पूरी नहीं होती जबतक हम अली और उनके कुनबे पर लानत न भेज दें।
अब्बास लौट आए और भाई को तमाम अहवाल कह सुनाया। इमाम हुसैन ने उनको दोबारा भेजा और कहलवाया कि बिना किसी से मिले, बिना किसी को जाने नफरत करना अच्छा नहीं है। एक बार मिलकर अपनी शिकायत तो दर्ज कराएं ताकि हमें भी ख़बर हो कि हमसे किसी को इतनी नफरत क्यों है?
इस बार ज़ुहैर ने मिलने से इंकार कर दिया। अब्बास लौटे और भाई को मसला बताया। इमाम हुसैन ने उनको फिर भेजा। इस बार कहलवाया कि चलो लानत ही करना है तो साथ बैठकर करना। आज खाना साथ खाएंगे और नफरत की वजहों पर तब्सरा भी हो जाएगा। अब्बास तीसरी बार आए तो जनाबे ज़ुहैर की अहलिया को बड़ा बोझ महसूस हुआ। उन्होंने कहा कि जब इतना बुला रहे हैं तो मिल क्यों नहीं लेते? 
बीवी ने ज़्यादा इसरार किया तो ज़ुहैर मान गए। लेकिन वो इस शर्त पर जाने को राज़ी हुए कि अली के बेटे से मिल आएंगे लेकिन कोई बात नहीं करेंगे। ज़ुहैर ख़यामे हुसैनी में गए तो निगाहें फेरकर, मानो बस चले आए। लेकिन जब लौटे तो मिज़ाज बदला हुआ था। किसी को ख़बर नहीं उनके और हुसैन के दरमियान क्या बात हुई। लोगों के क़यास हैं। कोई लिखता है हुसैन ने ज़ुहैर के किसी ख़्वाब का तज़करा किया जो उन्होंने बचपन में अपनी मां से बयान किया था। कोई कहता है हुसैन से मिलकर ज़ुहैर ने अपने दिल की सब बातें कह डालीं। मगर जब हुसैन बोले तो ज़ुहैर की नफरतें उनके अख़लाक़ के वज़न में दम तोड़ गईं और उनके दाल का मैल धुल गया। 
सुबह का बदतरीन दुश्मन शाम को बेहतरीन दोस्त था। उन्होंने अपनी बीवी से कहा कि आजतक इतने अच्छे अख़लाक़ का दूसरा इंसान नहीं देखा जैसे हुसैन हैं। ज़ुहैर वहां से कभी लौटकर अपने घर नहीं गए। कूफा की जगह कर्बला पहुंचे। आशूर के रोज़ ज़ुहैर सबसे पहले शहीद होने वाले असहाब में थे।
एक और मौजज़ा आशूर के रोज़ हुआ। इब्ने साद की फौज से उसका एक सिपाहसालार आगे बढ़ा। लोगों को लगा ललकारने जाता है। मगर वो पलट कर नहीं आया। पीछे-पीछे उसका बेटा चला और वो भी न पलटा। अपने बेटे के साथ उस हुर ने पाला बदल लिया। हुर भी कूफा के बाशिंदे थे। वो हुसैन को क़सीदिया से घेरकर करबला लाए थे लेकिन जब इब्ने साद ने पानी पर पहरा बैठाया तो हैरानो-परेशान हुए। उनको याद आया कि जब हुसैन से उनका पहली बार सामना हुआ तो उन्होंने कैसे उनके लश्कर को पानी पिलाया था।
लेकिन अब हुसैन पर पानी बंद था तो हुर पशोपेश में थे। उसको लगा था मामला बातचीत से सुलझ जाएगा। वो बार-बार इब्ने साद से पूछते कि लड़ाई टल तो जाएगी न? मगर जब यक़ीन हो गया कि शाम और कूफा की फौजें क़त्ले हुसैन पर आमादा हैं तो लरज़ गए। वो क़त्ले हुसैन में शरीक नहीं होना चाहते थे। अपने गुनाह का कफ्फारा उन्होंने अपनी और अपने बेटे की जान देकर चुकाया।
लोग कहते हैं हुसैन ने हुर का मुक़द्दर संवार दिया। मगर हुर दुश्मन की फौज में ज़रूर थे लेकिन उनका ज़मीर ज़िंदा था। हक़, नाहक़ की समझ थी। जबतक लड़ाई पर बात न आई तब तक पूरी ड्यूटी निभाई, जब हक़ की बात आई तो सब छोड़कर मौत को गले लगा लिया। मुक़द्दर मगर ज़ुहैर का ज़रूर संवर गया था। उन्होंने कर्बला से पहले कोई जंग नहीं लड़ी। कारोबारी थे, फौज से भला क्या लेना-देना। इमाम हुसैन से न उनके अक़ायद मिलते थे, न मिज़ाज, और न सोच। मगर हुसैन इब्ने अली से मिले तो उन्हीं के होकर रह गए।
कर्बला के दर्स में अख़लाक़ और नफ्स भी अहम हैं। अख़लाक़ की बिना पर इमाम हुसैन (अस) ने अपने बदतरीन दुश्मन को दोस्त बनाया और ऐसा दोस्त बनाया जिसने उनपर अपनी जान, माल, रुतबा, सब दांव पर लगा दिए। इसी तरह हुर ज़मीर के ज़िंदा होने की दलील हैं। अगर इंसान को वक़्त पर ग़लत-सही का अंदाज़ हो जाए तो बड़े से बड़े गुनाह से बच जाता है। ज़मीर ज़िंदा हो तो बदतरीन लोगों की सोहबत से निकल कर हक़ की राह पर आ जाता है। कर्बला हक़ और नाहक़ का मीज़ान ऐसे ही नहीं कही जाती। यहां हर चरित्र अनूठा है और अपने आप में एक सबक़ है।

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