करबला क्या सिखाती है?

इमाम हुसैन को मदीना छोड़कर मक्का क्यों जाना पड़ा? मक्का से अपना हज अधूरा छोड़कर कूफा की तरफ क्यों निकलना पड़ा? क्यों मुस्लिम इब्ने अक़ील की शहादत और कूफे की अवाम के अपनी बैयत से पलट जाने की ख़बर पाकर भी इमामे आली मक़ाम रास्ते से वापस नहीं लौटे? जब सब लोग बता रहे थे कि कूफा के अवाम भरोसे लायक़ नहीं हैं तो क्या इमाम हुसैन इतने भोले थे उन्हें इसकी ख़बर न थी? 
ऐसे बहुत से सवाल हैं जो हमसे अकसर पूछे जाते हैं। इसका पहला जवाब है, इमाम हुसैन न किसी ख़ुशफहमी में थे और न किसी धोखे में। न ही वो मदीना से सीधा कूफा या कर्बला गए। बेशक इमाम हुसैन हर हालात से आगाह थे। उन्होंने आगाही के हालात में मौत का रास्ता चुना क्योंकि उन हालात में ज़िंदा रहना ज़िल्लत का सबब था। हालात का अंदाज़ा उन्हें उसी रात हो गया जब मदीना में यज़ीद के गर्वनर वलीद इब्ने उत्बा इब्ने अबु सूफियान और मरवान इब्ने हाकम ने उनसे बैयत का मुतालबा किया। उसी रात उन्होंने मदीना छोड़ दिया और मक्का पहुंचे जहां लगभग चार महीने रहे। लेकिन हज के दौरान यज़ीद के जासूस देखकर वो समझ गए कि मरना ही है। इससे घर में क़त्ल होने के बजाय लड़कर मरा जाए।

ख़ैर, बड़ा आदमी हर ऐरे-ग़ैरे की बातों का जवाब नहीं देता। इमाम हुसैन भी नहीं देते थे। मदीना से कर्बला वाया मक्का, उन्होंने गिने चुने लोगों से बात की है, या उनकी बात का जवाब दिया है। इनमें एक उनके भाई मुहम्मद हनफिया बिन अली हैं, एक अब्दुलाह इब्ने अब्बास हैं, और एक फरज़दक़ जिससे उनकी कूफा के रास्ते में सफ्फाह के मक़ाम पर मुलाक़ात हुई। फरज़दक़ ने उनसे कहा कि “मौला, लोगों के दिल आपके साथ हैं लेकिन तलवारें इब्ने ज़ियाद की तरफ हैं।“ इसपर इमाम हुसैन ने कहा कि “यक़ीन अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है। मैं हक़ के साथ हूं और मेरा मामला उसके हवाले है।”

इब्ने अब्बास उनको मक्का में रुकने की सलाह दी और कहा कि यहा उनके लिए मदद भी जुटा लेंगे। इसपर इमाम हुसैन ने जवाब दिया कि “मक्का और मदीना में ख़ून-ख़राबा करके वो इन शहरों की हुरमत दांव पर नहीं लगाएंग। मुहम्मद हनफिया को उन्होंने लिखा कि अगर ज़ालिम के डर से घर में बैठ गए तो अपने नाना को क्या मुंह दिखाएंगे। आख़िर में क़सीदिया के पास उन्होने वापस लौट जाने की सलाह पर अपने साथियों से कहा "मैंने अपने नाना को ख़्वाब में देखा है। ये मेरी आख़िरी मंज़िल है। यहां से जिसे वापस जाना है जा सकता है।"

बैज़ा के मक़ाम पर कई लोग उनसे मिलने आए। उन्होंने कहा कि, “ऐ लोगों। नबी ए करीम ने कहा है कि अगर इंसान किसी तानाशाह को अल्लाह और उसके नबी के बताए रास्ते को मिटाता दिखे, और लोगों पर ज़ुल्म करता देखे और इसके बावजूद वो ख़ामोश रहे और कुछ न करे तो यक़ीनन अल्लाह ने उसके लिए जहन्नम चुन रखी हैष क्या तुम्हें हालात नज़र नहीं आते? क्या तुम्हें नहीं दिखता कि बुराई की कोई हद बाक़ी न रही। ऐसे में मैं मौत को बेहतर मानता हूं और ग़ासिबों के बीच रहना मेरे लिए ज़िल्लत का सबब है। “

कूफा के रास्ते में इमाम हुसैन ने मुहम्मद हनफिया को एक तारीख़ी ख़त लिखा। इसके बाद कर्बला और उनकी शहादत की तमाम वजहें वाज़े हो गईं। उन्होंने लिखा, “मैं किसी निजी मफाद के लिए, मज़े के लिए, किसी को सताने के लिए या फिर बेइमानी करने के लिए घर से नहीं निकला हूं। बल्कि मेरा मक़सद उन बुराइयों का मुक़ाबला करना है जो मेरे पुरखों के मज़हब में पैदा हो गई हैं। मैं चाहता हूं हराम हराम रहे और हलाल हलाल (अम्र बिल मारूफ और नही अनिल मुनकर)। मैं अपने बाप अली इब्ने अबु तालिब और नाना मुहम्मद एक मुस्तफा के रास्ते पर जा रहा हूं। इसलिए जो इसे सही जानेगा और मेरे साथ आएगा, उसने समझो ख़ुदा का रास्ता पकड़ लिया। लोग मेरी बात नहीं मानते हैं तो मैं सब्र और यक़ीन के साथ अपने रास्ते पर बढ़ता चला जाउंगा। मेरे और क़ौम के बीच का मसला फिर अल्लाह तय करेगा क्योंकि वो सबसे बेहतर इंसाफ करने वाला है।“

इमाम हुसैन ने कहीं पर ये नहीं कहा कि मैं यज़ीद की बैयत नहीं करूंगा। बल्कि उन्होंने हर बार कहा कि “मुझ जैसा” “यज़ीद जैसे की“ बैयत नहीं कर सकता। इस एक जुमले में इमाम हुसैन ने क़यामत तक का मसला तय कर दिया। वो किसी व्यक्ति या हुकूमत के ख़िलाफ नहीं हैं। बल्कि “जैसा” लफ्ज़ का इस्तेमाल बता रहा है कि उन जैसा या उनकी मानने वाला कभी भी यज़ीद जैसों की न बैयत कर सकता है न उन्हें अपना क़ायद तस्लीम कर सकता है।

अब जैसा लफ्ज़ में ही कर्बला का सारा संदेश छिपा है। जो हुसैन बिन अली को अपना इमाम मानता है वो कोई ऐसा अमल कर ही नहीं सकता जो हुसैन ने नहीं किया और यज़ीद न किया। इससे सबक़ मिलता है कि जुआरी, शराबी, ज़ालिम, ग़ासिब, हक़ हलाल में फर्क़ न करने वाला, ज़ालिम, और बेइमान कम से कम हुसैन जैसा नहीं है।

कर्बला और इमाम हुसैन का सबसे बड़ा दर्स अम्र बिल मारूफ है। यानि न सिर्फ ज़ुल्म सहने से इंकार करना है बल्कि किसी पर ज़ुल्म होते हुए देखना भी नहीं है। अगर कहीं ग़लत हो रहा है तो हाथ से, हाथ नहीं तो ज़बान से, और ज़बान नहीं तो लिखकर उसकी मुख़ालफत करनी है। कर्बला को दर्सगाह मानते हैं तो अच्छा अमल कीजिए, अच्छाई को बढ़ावा दीजिए, और अच्छे लोगों का साथ दीजिए। कर्बला ‘हमें क्या मतलब’, और ‘हम कौन’ जैसी बातें कहकर निकल जाने का रास्ता नहीं देती।

 इमाम हुसैन कह गए हैं कि ज़िल्लत की ज़िंदगी से इज़्ज़त की मौत लाख गुना बेहतर है। उन्होंने कहा कि घुटनों पर रींगने से बेहतर है एड़ियों पर खड़ा रहते जान निकल जाए। इसलिए रीढ़ की हड्डी मज़बूत कीजिए, जुल्म के सामने खड़ा होना सीखिए। कर्बला कहती है कि ज़ुल्म मुक़ाबिल हो तो तादाद नहीं देखनी है बल्कि अपना हौंसला बनाए रखना है।

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